बैठे रहते एकांत में, कभी यूँ ही, कभी याद में,
कभी दरों - दीवारों से सिर पीटते है,
तो कभी बगीचें वक्त बीताते है,
आदत है हमारी ऐसे ही रहने की शोर और भीड़ से दूर खुद में जीने की,
ना मजबूरी की कहानी है, ना खौफ की है दास्तान,
ना शिकायत है लोगों से, ना शिकवा है किसी से करने को हमारे पास,
चुप्पी अब तो हमारा हिस्सा बन गई है,
दुनिया को हम पर तंज़ करने की आदत हो चुकी है.
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