वो एक दिन,
ना जाने कब आएगा, जब हमें सुकून आएगा,
खुल के लेंगे हम सांस और मुस्कुराहट में भी दम आएगा,
उस दिन हम - हम होंगे बाकि सब खत्म हो जाएगा,
वो एक दिन ना जाने कब आएगा,
वो एक दिन,
जब हम सबको समझने लगेंगे,
बिना किसी बहस के सब एक दूसरे को सुनने लगेंगे,
भूल जाएंगे सारी कमियों को हम,
और पूरी दुनिया को खुद जैसा ही समझने लगेंगे,
उस दिन शायद थोड़ा इक्मिनान आ जाएगा,
वक्त बदल देता है सब कुछ अपने वक्त पर,
इस बात पर यकीन आ जाएगा,
वो दिन ना जाने कब आएगा,
वो एक दिन,
ना जाने कब आएगा जब इंसान माफ करना सीख जाएगा,
नज़रअंदाज़ कर देगा सभी गैरज़रूरी बातों को,
और एहमियत का मतलब समझ जाएगा,
वो दिन ना जाने कब आएगा.
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