हर रात चाँद निकलता है,
कभी छुपता है कभी दिखता है,
तारों की मंड़ली लेकर आता है,
वो हर रात यूँ नज़दीक आता है,
मायूसी पहनावा है इंसान का रात का नहीं,
टूटते तारों को देख कर भी रात शोक कब मनाती है,
अलविदा करती है उसको खुश हो कर,
शुक्रिया भी करती है साथ निभाने की बात पर,
अपने समय पर होती है रात, अपनी मर्ज़ी से सुबह के ले आती है,
गुलाम तो हम है ख्वाहिशों के वो आज़ाद आकाश में जश्नन मनाती है,
बातें सुनती है ऐसा इंसान कहता है,
यकीन मानों चाँद को देखकर लगता है इंसान सच ही कहता है.
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