कभी तो हरियाली के समान है, कभी तो पतझड़ भी राहों का श्र्ंगार है,
सजते है कभी हम सफेद चादर में तो कभी भीग जाते है बारिश की फुहार में,
ओस की बूंद भी हमें गिला करती है, सूखने नहीं देती सपने,
और ना ही धूप की गर्मी हमें सहलाती है,
पहले होती थी आशा अब वो भी बची नहीं,
उम्र के पड़ाव में पहले जैसी ख्वाहिश रही नहीं,
पहले तो भगा - भगा कर रास्तों ने खूब थकाया है,
अंत में बैठा दिया किनारें पर औ कह कर कि तेरे ज़िम्में इतना ही आया है.
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