मैं मौसम खुद की फिक्र में डूबा रहता हूँ,
क्या हो गया है मुझे यही सोच सारा दिन बैचेन रहता हूँ,
पहले मेरे आने और मेरे बदलने का समय निर्धारित था,
किस माह में मैं कौन सा रूप धारण करता हूँ यह भी जगज़ाहिर था,
अब तो मेरी काया ही पलट गई है,
औरों को छोड़े मुझे खुद को ही नहीं पता कि मैं कब कहाँ पहुँचा और कब कहाँ से लौट गया,
पूर्वानुमान सब धरे के धरे रह गए, मुझसे पूछों पहले मैं क्या था और अब क्या हो गया हूँ,
गर्मी पहले सहनशील हुआ करती थी, अब आफत मचा रही है,
हाय - हाय करते है लोग यहाँ, मेरी खुद की पकड़ ही कमज़ोर होती जा रही है,
धूप आग उगल रही है, ना जाने कितनों कि जान ले रही है,
मैं क्या करूँ बड़ी बेबस हो गई हूँ, लगता है ऐसे जैसे लाईलाज हो गई हूँ,
बारिश कि ना पूछों पहले तो मेरे हिसाब से चलती थी, जहाँ लोग तरसते थे वहाँ पानी की बौछार करती थी,
अब मनमौजी हो गई है किसी कि नहीं सुनती, उम्मीद कितनी भी बांध लो, अब इस पर असर नहीं करती,
ज़मीन आस लगाए बैठी है कि बारिश होगी तो मैं त्रप्त हो जाऊँगी, बड़ी प्यासी हूँ मैं आज अपनी प्यास बुझाऊंगी,
उसे क्या पता वो तो कहीं और ही सैलाब बन कर अपना दामन खाली कर चुकी है,
कुछ भी बचा नहीं उसके पास वो तो ज़मीन पर आसमान से आफत बरसा चुकी है,
मुझ मौसम को ना जाने क्या हो गया है, अपनी तब्दीली पर आश्रचर्य हो रहा है,
रोता हूँ जब खुद के लिए कुछ नहीं कर पाता हूँ, मेरा हकीम तो ऊपरवाला है,
जो सब देख रहा है फिर भी ना जाने क्यों कोसों दूर खड़ा है,
मेरी आशा अब सर्दी से वाबस्ता है, शायद कुछ तबियत में सुधार हो जाएं,
नहीं तो मैं भी मजबूर हूँ, ठिठुरन देखने के अलावा क्या ही कर सकता हूँ.
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