बर्दाशत की हद तक जाना चाहती है,
ऐ हमें अभी और आज़माना चाहती है,
ना जाने क्या चाहती है हमसे,
ये ही जाने ऐ हमसे क्या चाहती है,
कभी खुद चलने को कहती है,
तो कभी पीछे से धक्का देती है,
गिरा देती है ज़मीन पर ऐ,
फिर खुद ही संभाल लेती है,
ना जाने ऐ हमसे क्या चाहती है,
दिल की सुनों तो दिमाग बुरा मान जाता है,
संतुलन बनाए भी तो कैसे कम्बख्त मन बीच में आ जाता है,
भीड़ चाहिए या झुंड़ कुछ समझ नहीं आता है,
ऐ या वो, वो या ऐ की कशमकश के बीच समय निकल जाता है,
सीखाती है ऐसे जैसे हमेशा साथ रहेगी,
जब रह जाएगी अकेली तो किससे ऐ गिला करेगी.
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