थकता हूँ, परेशान होता हूँ, टूटता हूँ, बिखरता हूँ,
चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ, गुस्सा भी होता हूँ,
हर इंसान की तरह सब कुछ करता हूँ,
फर्क सिर्फ इतना है कि वो तबाह हो जाते है,
और मैं बिगड़ता भी नहीं हूँ,
दूर तो जाता हूँ, मगर दूर नहीं रहता,
नाराज़ तो होता हूँ, मगर परवाह नहीं छोड़ता,
अकेले रहना चाहता हूँ, मगर वो भी नहीं करता,
ज़िम्मेदार हूँ साहब, वरना तो बिगड़ने से मैं भी नहीं ड़रता,
गलतियां करता हूँ, मगर उसे दोहरा कर गुनाह नहीं करता,
ज़िद्द करना चाहता हूँ, मगर वो भी नहीं करता,
सुन लेता हूँ सबकी मगर पलट कर जबाव नहीं देता,
मैं बिगड़ गया हूँ मुझे इस बात का कोई ताना नहीं देता.
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