वैसे तो रेल में सफ़र करना एक आम बात है पर जब बात भारतीय रेल की हो तो यह एक सौभाग्य है| जो समाज आपकी नजरों के सामने है, उसके उलट भी एक समाज भारत में बसता है, यह आपको भारतीय रेल की यात्रा में अनुभव हो सकता है| यहाँ आपको एक ऐसे जन मानस से रूबरू होने का मौका मिलता है, जिनसे आप चंद घंटो की यात्रा में देश के विभिन्न राजनीतिक तथा सामाजिक मुद्दों का ज्ञान अर्जित कर सकते है|
लगभग सात-आठ महीने पहले की बात है, ट्रेन थी पातालकोट एक्सप्रेस और मैं भोपाल से विदिशा की और लौट रहा था| मैं जिस सीट पर जाकर बैठा वहां पहले से ही पांच लोग और बैठे हुए थे| जैसे ही ट्रेन चली, आस-पास बैठे हुए सभी लोग अपने मोबाइल में मग्न हो गए मानो बस वो और उनका मोबाइल ही सफ़र कर रहे हो| खैर आजकल के दौर में तो ये आम बात है| अमूमन मैं रेल में सफ़र करते वक़्त लोगों से बात करने में,अपने आस-पास घटित हो रही चीजों पर ध्यान देने की कोशिश करता हूँ पर चूँकि उस दिन मैं बड़ी रोचक किताब पढ़ रहा था तो मेरी नजर बाकि लोगों पर नहीं पढ़ी| ट्रेन जब लगभग आधा रास्ता तय कर चुकी थी, मैंने किताब बगल में रखी और जरा अपना सर ऊपर किया और देखा की ठीक मेरे सामने की सीट पर एक सज्जन बैठे हुए थे, उन्हें देख कर ऐसा लगा कि जब से ट्रेन चली है तब से हम सभी पर ही नजर रखे हो| वो बुजुर्ग तो नहीं थे, पर हाँ उम्र में काफी बड़े लग रहे थे| उनके चेहरे को देखकर ये साफ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वे किसी चिंता में डूबे हुए है| थोड़ी देर तक सोचने के बाद मुझसे रहा नहीं गया और आखिर मैंने उनसे पूछ ही लिया की वे कुछ परेशानी में दिख रहे है| बस फिर क्या था, मेरा पूछना हुआ ही था और उधर अंकल तपाक से बोल पड़े की देखो ये आजकल के लोग बस मोबाइल में लगे रहते है,मशीनों की कठपुतली बनते जा रहे है और ऐसे ही तमाम व्यंग्य ,ढेर सारे उदाहरण उन्होंने मेरे सामने रख दिए| मेरे पास भी हाँ कहने के अलावा कोई चारा ना था| उनके हाव-भाव अब बदल चुके थे,जो चिंता चेहरे पर झलक रही थी वो अब गायब थी| मुझे ऐसा लगा मानो की वो बड़ी देर से इसी इंतजार में थे कि कोई उनसे बात करें और वे उनका मन हल्का कर सकें| पांच-दस मिनट तक इसी मुद्दे पर उनसे लगातार बातचीत हुई और इसी बीच में, मैं उनसे इतना घुल-मिल गया जैसे की हमारे बीच अजनबी कोई था ही नहीं| इसी दौरान उन्होंने मुझे बताया कि एक दिन पहले ही के अख़बार में उन्होंने पढ़ा था कि शहर में एक पति ने अपनी पत्नि की केवल इस बात पर हत्या कर दी क्योकि समय पर दहेज़ की मांग पूरी नहीं हुई थी| उन्होंने बताया की जिसने हत्या की वो पढ़ा लिखा तो था ही एवं संपन्न परिवार से ताल्लुक रखता था| पर फिर भी उसने ऐसा कृत्य किया, आखिर क्यों? शायद उन्होंने यह सवाल मुझसे ही पुछा था पर मैं उन्हें उत्तर न दे सका| कुछ ही देर में और भी ऐसी तमाम घटनाएँ उन्होंने मेरे सामने रख दी, आखिर मैं समझ नहीं पा रहा था की वे ये सब मुझे क्यों बता रहें हैं| पर पता नहीं क्यों मैं भी उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहा था और वे भी शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे| विदिशा पहुँचने में लगभग १५ मिनिट का समय शेष था और तभी उन्हें कोई किस्सा याद आ गया| किस्सा सुनाते हुए उन्होंने बताया कि उनके गाँव में कुछ ही समय पहले एक विवाह संपन्न हुआ है| जिसकी पूरे गाँव भर में चर्चा है, वैसे भी आजकल ये बिना चर्चा के होते भी कहाँ है| और ग़र हम ये कहे कि“आज के दौर में विवाह, विवाह नहीं रह गए है बल्कि पैसो के लेन-देन एवं दिखावे का कार्यकतो इसमें कुछ गलत नहीं होगा| खैर छोड़ो, जिस विवाह की चर्चा की हम बात कर रहे वो इसलिए चर्चा में नहीं था की वहां खूब दहेज़ लिया गया या पानी की तरह पैसा बहाया गया बल्कि इसलिए था क्योकि लड़के वालो ने कोई दहेज़ ही नहीं लिया था| गाँव में बिना दहेज़ की पहली शादी थी इसलिए लोग हतप्रभ थे कि आखिर ऐसा कैसे मुमकिन है? लोग तरह-तरह के कयास लगा रहे थे| सुनकर सवाल मेरे मन में भी उठा और मैंने पूछ ही लिया आखिर उस परिवार ने दहेज़ क्यों नहीं लिया?
उन्होंने बताया की जब शादी की बात चल रही थी,तब लड़की वाले आये थे घर पर| कुछ ही समय में लड़के से लेकर घर-बार सब पसंद आ गया था उन्हें| आता भी क्यों नहीं, लड़का सरकारी नौकरी में जो था और फिर आजकल सरकारी नौकरी इतनी आसानी से मिलती कहाँ है| सब कुछ देखकर लड़की वालो ने भी तुरंत ही हामी भर दी| रिश्ता तय हो चुका था और शुभ मुहूर्त निकालने के लिए पंडितजी को बुलाया गया था| तभी लड़के के मामा( व्यासजी) ने दहेज़ की मांग रख दी| मामाजी के दहेज़ लेने के पीछे अपने तर्क थे, ऐसा रिश्ता मिलता कहा आजकल, लड़का भी नौकरी में है, लड़की खुश रहेगी इत्यादि| हालाँकि लड़की के पिता(प्यारेलाल) ने दहेज़ का मना नहीं किया था बल्कि उन्होंने तो शुरुआत में ही लड़के के पिता(रामलाल) को बता दिया था कि वे कोई कमी नहीं रखेंगे चाहे उन्हें इसके लिए अपना घर-बार, जमीन बेचनी ही क्यों न पड़े या फिर क़र्ज़ ही क्यों न लेना पड़े| रामलाल जी का परिवार भी ज्यादा कोई अमीर नहीं था पर ईश्वर की कृपा से घर में कोई कमी नहीं थी,जरुरत के अनुसार सब कुछ था| पर चूँकि मामा ने दहेज़ की मांग रख दी थी और अमूमन उनकी बात को परिवार में कोई काटता नहीं था लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ| जब रामलाल जी को इस बारे में पता पड़ा की दहेज़ की मांग को पूरा करने के लिए प्यारेलाल जी को क़र्ज़ लेना पढ़ रहा है तो वे बेहद निराश हुए और इस बार तो उन्होंने अपने साले साहब यानि कि मामाजी की भी रिमांड ले ली| रामलाल जी ने उसी वक़्त दहेज़ न लेने और न देने का फैसला किया और उनके बेटे(भोला) जिसकी शादी तय हुई थी उसने इस फैसले में उनके साथ दिया| हालंकि समाज वाले और अन्य रिश्तेदार उनके इस फैसले पर उनका मजाक बना रहे थे| बोल रहे थे की इतना अच्छा मौका हाथ से मत गवाओ,इकलौता लड़का है मुहमांगी रकम मिलेंगी पर इन सब बातो का रामलाल जी पर कोई असर न पड़ा वे तय कर चुके थे| फिर जब प्यारेलाल जी दहेज़ के पैसे देने घर आये तो रामलाल जी ने शमैं एक ऐसी लक्ष्मी को अपने घर में बहु नहीं बनाना चाहूँगा जो कि अपने पिता को क़र्ज़ में डुबो कर आये और वो भी बस इसलिए क्योकि बस वो एक लड़की है जिसमे उसका कोई कसूर नहीइतना सुनते ही प्यारेलाल जी और रामलालजी की आँखों में आँसुओ की धार लग चुकी थी| पर ये आंसू दुःख के नहीं ख़ुशी के थे, दोनों बहुत देर तक एक दूसरे से गले मिले और मामाजी बगल में खड़े हुए शायद खुद पर ही शर्मिंदा हो रहे थे| शुभ मुहूर्त निकाला गया और विवाह बहुत ही सरल एवं शांत तरीके से संपन्न हुआ| आस-पास बैठे लोग अभी भी मोबाइल में ही लगे हुए थे, ट्रेन स्टेशन पर पहुँच चुकी थी| और जो एक सवाल मेरे मन में आया था की अंकल मुझसे ये सब बात क्यों कर रहे है उसका जवाब भी जाते-जाते उन्होंने मुझे दे ही दिया और कहा कि बेटा हो सकता हो तुम्हे मेरी बाते पुरानी और शायद अच्छी न लगी हो पर मेरा मकसद तुम्हे ये सब सुनाने का इतना ही था कि तुम युवा हो, कल को तुम भी बड़े होकर इस समाज में अपना योगदान दोगे और उसके लिए रामलाल जी की तरह की सोच अति आवश्यक है| बात छोटी सी थी मगर काम की थी और मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ चुकी थी|
लगभग चालीस मिनट की यात्रा में मैंने बहुत कुछ सीख लिया था,अभी तक अपने आस-पास मैंने केवल लोभी,लालची लोगों को ही देखा था और शायद पूरी समाज को उसी नजर से देखने का नजरिया बन चुका था मैं सोचता था कि ये कैसा समाज है जो बस अपने मतलब में यकीं रखता है,इसे औरो की परेशानियाँ नहीं दिखती पर शायद मैं गलत था| यहाँ रामलाल जी जैसे लोग भी समाज में है जिनकी सोच सभी के लिए एक प्रेरणा है| | अब शायद मैं जान चुका था कि समाज वही है, लोग वही है और वही रहेंगे, जरुरत बस इतनी है एक अच्छी सोच को आगे लाकर समाज के बीच में रखा जाये ताकि और लोग भी उससे प्रेरित हो सकें| मैं समझ चुका था कि इस समाज को एक दूसरी समाज में बदलने से कुछ नहीं होगा बल्कि यहाँ बस लोगों की सोच को बदलने की जरुरत है, समाज स्वतः ही सुधर जाएगा” | सोचता हूँ काश वे सज्जन फिर कभी मुझे मिलें तो कम से कम उन्हें धन्यवाद ही कह सकूँ|
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बिल्कुल सही बात लिखी है आपने
जी.... ये सही बात भी समाज ने ही सिखाई 😊
बहुत खूब
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