काश! तू बचपन फिर लौट आ,
ना कोई फिकर न कोई चिंता,
बस अपने में बेसुध अलमस्त,
न हार का दुख न जीत का जश्न,
ढे़र सारा मासूम सा अपनापन,
काश!तू बचपन फिर लौट आ,
छोटी-छोटी यूँ बातों पर लड़ना
फिर लड़कर एकाकार हो जाना,
न खोने का डर न पाने की चिंता,
हरेक को अपना समझने की चेष्टा,
काश! तू बचपन फिर लौट आ,
माँ का आँचल औ पिता का साया,
सोचते थे यही घरौंदा है अपना,
पर वह तो अब बन गया सपना,
पर अब नया घर नये रिश्ते हैं।
* राधा गुप्ता वृन्दावनी*
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