सिनेमा… जिसे हमारे देश में संस्कृति और कला का समागमन माना जाता है। अगर संस्कृति और कला को एक साथ कहीं समिश्रण देखना हो तो वो है सिनेमा जगत। अपने अभिनय की कला से कलाकारों ने एक से बढ़कर एक बेहतरीन फिल्में की जिन्होंने एक इतिहास रचा। इन फिल्मों ने सिनेमा जगत को बुलंदियों की ऊँचाई पर पहुँचा दिया। चाहें वो सत्यजीत रे निर्देशित फिल्में हों या राजकपूर निर्मित।
कुछ बेहतरीन फिल्में जिनमें अभिनय करने से कलाकारों ने जीवंतता ला दी। चाहें वो मदर इंडिया हो या शोले। बाल मनोरोग से संबन्धित फिल्में तारे जमीं पर , पा, कृष। इसी तरह स्कूल से संबंधित फिल्में चॉक-डस्टर,हिंदी मीडियम और अंग्रेजी मीडियम ही क्यों न हो।
पीरियड फिल्मों की बात करें तो देश के महापुरुषों की जीवनी और उनके साहस पर एक से बढ़कर एक फिल्में बनी। देशभक्त जैसे शहीद भगत सिंह,रानी लक्ष्मी बाई,मंगल पांडे, बाजीराव पर कलाकारों ने शानदार अभिनय कर जीवंतता डाल दी।
समय के साथ सिनेमा जगत कला और संस्कृति में पूंजीपतियों ने आना शुरू किया और धीरे-धीरे यह उद्योग बन गया और इसे फिल्म इंडस्ट्रीज के नाम जाने जाना लगा है। यह फिल्म इंडस्ट्रीज युवाओं को आकर्षित करने लगी और युवा फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों को ही अपना आदर्श मानने लगी।
पुरानी फिल्में मनोरंजन, शिक्षाप्रद,संस्कृति का ध्योतक थीं परन्तु जैसे-जैसे पश्चिम का अनुकरण हुआ,फिल्म क्षेत्र का विस्तार हुआ,ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में बेसिरपैर की कहानी में ग्लैमर,चमक-दमक,सेक्स,आइटम साँग का तड़का लगाकर परोसा जाने लगा। दर्शकों को भी यह ग्लैमर, चकाचौंध खूब रास आने लगा ।
क्या भारतीय सिनेमा उद्योग अनुकरणीय है?
आज का दर्शक विशेषकर युवावर्ग फिल्मी कलाकारों को अपना आदर्श, अपना रोल मॉडल मानता है। युवाओं में दिवानगी इतनी हद तक है कि उनकी फिल्म कलाकारों के जैसे ही कपड़े पहनना,बोलना शुरू कर देते हैं। उनकी बुराइयाँ भी उनके फैंस को अच्छी लगने लगती हैं। उनको लगता है ये तो ट्रेंड है और हुबहू वैसी ही नकल करने लगते हैं।
दर्शक यह भूल जाते हैं ये कलाकार भी आम इंसान हैं। इनकी हर बात को आँख मूँद कर फॉलो करना सही नहीं है। फिल्म में निभाया गया किरदार है न कि असल जिंदगी। एक कलाकार हर फिल्म में अलग-अलग किरदार निभाता है तो वह असल जीवन में इंसान ही हुआ न। वह फिल्म में जो किरदार निभा रहा है वह का पात्र मात्र है न कि वह स्वयं।
दर्शक विशेषकर युवाओं को बड़ों द्वारा उचित मार्गदर्शन देना चाहिए कि आदर्श, रोलमॉडल या हीरो हमारे शहीद और स्वतंत्रता सेनानी कहलाते हैं न कि फिल्मी कलाकार। यह सिर्फ़ अभिनय/नाटक कहते हैं जो सिर्फ़ झूठा है। जैसे एक डॉक्टर, वकील या कोई भी प्रोफेशन का व्यक्ति अपने अपने कार्यक्षेत्र में डॉक्टर या वकील कहलाते हैं पर घर आते ही वह किसी के पिता,भाई-बंधु हो जाते हैं। युवाओं को यह अच्छी तरह से समझाना चाहिए कि जैसे रामलीला मंचन में जो व्यक्ति राम या रावण का अभिनय कर रहा है, वह हकीकत में राम या रावण नहीं है उसी तरह फिल्मी कलाकार अलग अलग फिल्मों में अलग अलग अभिनय कर रहे हैं वह आदर्श नहीं है।
ड्रग,माफिया,नेपोटिज्म,अंडरवर्ल्ड,भाई-भतीजावाद,मनी लाँड्रिंग,धर्मांध को बढ़ावा देती ये इंड्रस्टी कैसे किसी की अनुकरणीय हो सकती है?
हमारी संस्कृति,परंपरा, रीति-रीवाजों की इस फिल्म इंडस्ट्री ने खुले आम धज्जियां उड़ा रखी हैं। तभी तो पुरानी फिल्में और गीत अब तक इतने सालों बाद भी जुबां पर चढ़े हुए हैं,सदाबहार हैं। जबकि वर्तमान समय में महँगे बजट,महँगे कॉस्ट्यूम, महँगे सेट होने के बाबजूद और एक साल में ही थोक के भाव में फिल्में बनने के बाद भी कब फिल्म आई और कब गई पता ही नहीं पड़ता है। फिल्मों के गाने भी कुछ दिन जुबां पर रहते हैं और फिर उस गाने को भूल दूसरे गाने का सुरूर चढ़ने लगता है।
जब कला और संस्कृति में पैसा,ख्याति,अंडरवर्ल्ड,नेपोटिज्म जैसे दुर्गुण प्रवेश कर जायें तो सरस्वती(कला) स्वतः ही चली जाती है।
अतः दर्शकों को अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए कि हमें किसी नेता-अभिनेता की नकल न कर खुद कुछ अच्छा कर समाज में आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए जिससे समाज और परिवार आप पर फक्र कर सके। आप जैसा बन सके।
अंत में, यही कहना चाहती हूँ कुछ देर के लिए आप भले ही इनकी नकल कर लें पर जमीनी हकीकत में आते ही पता पड़ता है यह सब एक छलावा है और फिल्मी कलाकारों की अनुकरण करते करते आपने अपना जीवन ही नाटक बना लिया और जब तक होश आता है तब तक जीवन का बहुमूल्य क्षण बर्बाद हो चुका होता है।
जीवन को फिल्मी मत होने दो
पर ऐसा जरूर कुछ कर
जाओ कि
फिल्म तुम्हारे जीवन पर बने।।
स्वरचित, मौलिक व अप्रकाशित
धन्यवाद
राधा गुप्ता 'वृन्दावनी'
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