सौ साल पुरानी हवेली.....
. हाँ सौ साल पहले की बात है जब ये एक शानदार हवेली हुआ करती थी , आज कई हिस्सों मे बँट गई है ।
इस एक हवेली के कई घर बन गए हैं , अलग - अलग परिवारों से लोग इसमें रहने लगे है हवेली का कोई हिस्सा किसी ने खरीदा तो कोई किसी ने खरीद लिया है ।
कभी किसी वक्त मिलने - जुलने वालों का , रिश्तेदारों का , नेताओं का जमावड़ा हुआ करती थी ये हवेली ।
पेहवा शहर की नामी -गिरामी हस्ती धवन साहब जिन्हें सब इज़्ज़त से लाला जी कहा करते थे , अभी पाकिस्तान -हिन्दूस्तान भी नहीं बने थे , शूरू से ही वो यहीं पले -बढे़ । आज उनकी वो हवेली छोटे - छोटे कई घरों में बदल गई है । धवन साहब अपने ऊसूलों के पक्के थे , उनके तीन बेटे , और चार बेटियां थी , वो शूरू से यही कहते थे , मेरी बेटियां भी मेरी जायदाद की वारिस होंगी , लेकिन तब बात आई -गई हो जाती थी ।
जैसे ही सब बच्चों की शादी हुई , सब के मन में लालाच घर कर गया । सब को अपने- अपने हिस्से की हवेली चाहिए ।
जब तक धवन साहब ज़िन्दा थे किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई बोले उनके स्वर्ग सिधारते ही सब की नज़रों में आ गई हवेली , धवन साहब का बड़ा बेटा कुछ ज्यादा ही होशियार था , दो बहनों ने हवेली के हिस्से की बात की तो उनको अलग से छोटे -छोटे घर ले दिए कि हवेली के टुकड़े ना करे ,जितना उनका हिस्सा बनता है उतनी कीमत का घर ले दिया , और फिर सबसे छोटे भाई और दो बहनों को साथ मिला कर ज्यादा हिस्से का लालाच देकर अपने साथ मिला लिया और दूसरे नम्बर के भाई को घर से बाहर कर दिया ।
लेकिन कुदरत का खेल देखो सबसे छोटा भाई भी काफी तेज़ था , मँझले भाई के जाते उसने भी अपना रँग दिखाया चुपचाप रातों - रात हवेली में दिवार खड़ी कर दी किसी को कानों -कान खबर ना हुई , तीसरा हिस्सा हवेली का अपने कब्ज़े में कर लिया । अब दो हिस्से बड़े भाई के पास और दो बहनों को भी हिस्सा देना था , बड़े ने दोनों बहनों को कुछ ना देकर बाकी की सारी हवेली अपने पास रखी , उनसे झूठ कहा कि छोटा बहुत से पैसे ले चुका है मुझसे और मुझ पर बहुत कर्ज़ है , सो हवेली बेच कर भी जो पूरा ना हो ।
बहनें उसकी बातों में आ गई और अपना हिस्सा लेने से मना कर दिया । अब बड़े के पास हवेली के दो हिस्से और अकेला मालिक , कुदरत का एक और इनसाफ़ जैसे बहन-भाईयों का हिस्सा छीना , आगे अपने बच्चे ( दो बेटे और एक बेटी ) भी वही करने लगे , माता -पिता को वृद्ध आश्रम छोड़ आए और हवेली को कई हिस्सों में बाँट कर बेच दिया और अपना -अपना हिस्सा लेकर सब के सब विदेश चले गए और माता -पिता दोनों ने वृद्ध - आश्रम में दम तोड़ा ।
मेरी माँ ने मुझे ये सब बताया , आज मेरी उम्र भी साठ साल की है , लेकिन मुझे वो हवेली देखने का बहुत मन हुआ , अपने परदादा की हवेली , मै पेहवा अपने बच्चों के साथ आई और वहां जब हम हवेली देखने गए तो देख कर अचम्भा हुआ कि चाहे उस हवेली के कई टुकड़े हुए , कई लोगों ने उसे खरीदा , ( क्योंकि वो इतनी बड़ी थी कि कोई एक नहीं ख़रीद सकता था ) लेकिन बाहर से हवेली को वैसा ही रखा गया जैसा माँ ने बताया था , जितने भी घर थे उस हवेली में सब मिलजुल कर बाहर से रँग - रोगन अथवा मुरम्मत करा लेते थे , और बाहर से हवेली वैसे की वैसी ही थी ।
जैसी करनी वैसी भरनी अगर सब मिलकर प्यार से रहते तो आज हवेली अन्दर से भी वैसी की वैसी रहती यूँ हिस्सों में ना बँटती , अन्दर से हवेली के टुकड़े देख जितना दु,:ख हुआ था , बाहर से एक देख कर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्नता हुई ।
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