चीर के धरती के सीने को नए -नए अंकुर है उगाता ,
करके मेहनत अन्न उगाता , भूख वो जन-जन की मिटाता ।
कड़कती धूप हो या ठिठुरती सर्दी या हो काली घटा से बरसती बरखा ,
मुंह में निवाला ना तन पे दुशाला ,जेठ महीना ,
पूस की रात , इनके लिए एक जैसे हालात ।
पायल , बिंदिया , कंगना , हार ऐसा नहीं उसे रास ना आता ,
उसको भी सजना - संवरना भाता , उंडेल कर अपने सपनों को खेत में ,
देख कर खुशी चेहरे पे बच्चों के , खुशी से उसका मन मयूर है अकुलाता ।
आलस कभी ना मन में रहता , बिन बोले चुपचाप ,
सूखा, बाढ़ , कुदरत का कहर है सहता रहता ।
सूरज उगने से पहले उठता , सबको निवाला देने वाला ,
कभी - कहीं खुद बिन निवाला रह जाता ।
जो सबको अन्न खिलाता , वो खुद क्यों भूखा रह जाता ?
कोई तो समझें उसकी व्यथा , वरना एक
दिन बन जाएगी किसान की किसानी एक कथा ।
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