बाबु
दफ़्तर और घर की दो पाटों वाली चक्की में पिस जाता हूं ,।
हां ..…… मैं बाबु कहाता हूं …… मैं हूं बाबु बेचारा……
गुज़रता हूं जब सड़क से लोग कसते हैं फब्तियां अरे देखो
वो जा रहा बाबु बेचारा , फाईलों के बोझ से झुक जाती
गर्दन है, चेहरे की चमक भी तो आफिस को अर्पण है ।
लेकर कलम की छड़ी हाथ में करता हूं रोज़ अक्षर महिषि
पर सवारी ,फिर भी सहनी पड़ती झिड़की की चोट करारी ।
देखो मेरे तन का भी तो प्लास्टर है हर जगह से उखड़ा ,
चेहरे का उपवन भी देखो मेरा है उजड़ा-उजड़ा ।
आंखों के लैम्प हुए काले, खोपड़ी की छत पर कितने जाले ।
जैसे किसी दिवालिए की हो दूकान आनन-फानन सी ।
दीमाग कंजूस महाजन का जिसमें भूसा भरा सारे गांव का ।
जब तक सर है, खोपड़ी का घर है, तब तक मेहमान दर्द का
बशर है , कम नहीं होगा काम दफ़्तर और बीबी जी के घर की
महफ़िल होगी रोज़ कमाल , जय हो कलम और जय हो कलमदान ।
झिड़की देती बीवी भी रोज़ , कहती उनके आराम का मुझे नहीं ख़्याल
अपने जी का जंजाल यही है, होता आटा गीला कंगाली में , हुलिया भी
तो रहता टाईट , ढीला रहता हाल हमारा , नहीं कोई हमारे काम का मुल्यांकन
जय हो बीवी का शासन, जय हो जनता जनार्दन ।
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेम बजाज , जगाधरी ( यमुनानगर )
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