उफ़्फ़ कैसे भुला दूँ मै वो रात, इश्क की बाँहो मे झूल रही थी मैं जिस रात ।
फूलों की सेज पर दो कमल दल खिलते हुए , इक -दूजे को महका रहे थे जिस रात ।
शर्मो-हया का पर्दा था बस, दुपट्टे को होले से इश्क ने सरकाया था जिस रात ।
कोई बादल जैसे चँद को छुपाले, गेसुँओ ने चेहरे को उसी तरह ढाँप लिए था जिस रात।
बाँहो मे लेकर चुराई जो उसने लबों की लाली, साँसे भी शोला बन गई थी जिस रात ।
इश्क की छुअन से हुस्न का रोम-रोम सुलग रहा था जिस रात ।
कैसे भूला दूँ वो रात, इश्क की मेहरबानियों से सराबोर थी जिस रात ।
पायल को बहुत रोका शोर मचाने से, मग़र कमब्ख़्त पुरज़ोर शोर मचा रही थी पायल जिस रात ।
इश्क की निगाह बन गई थी काफ़िर, और हुस्न को भी होना था ख़राब जिस रात।
इश्क की तपिश से तप कर हुस्न को ज़र्रे से होना था माहताब जिस रात ।
आती है बार-बार मुझको याद वो रात, इश्क के आग़ोश में मदहोश थी मैं जिस रात।
थी कयामत की वो रात,इश्क की बाँहो में जिस्म पिघल रहा था जिस रात!
कैसे भुलूँ वो रात जमीं -आसमाँ मिल रहे थे जिस रात ।
उफ़्फ़ कैसे भूला दूँ मैं वो रात, इश्क की बाँहो में झूल रही थी मैं जिस रात।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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