ना जाने ये कैसा वक्त आया है, अपना ही साया अपने से दूर मैंने पाया है, जिस बेटे को उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, उसी ने हाथ छुड़ाया है।
जो ना रहता था पल भर को भी बिना मेरे, सात समुंदर पार उसने डेरा लगाया है, कहता है पापा क्या रखा हैं वहां जहां आपने डेरा लगाया है, ना पैसा , ना पदवी, ना शोहरत, ना माया है, आपने तो बस अपना सारा जीवन मुफ़्त में गंवाया है।
अर्धांगिनी भी छोड़ गई साथ मेरा, अब तक तो अच्छा साथ निभाया था, कहती थी नहीं जाना छोड़कर तुमको, मांगती रही भीख जिंदगी से, बस यही लफ्ज़ थे आखरी उसके," मेरे जीवन में क्यूं इतने दुःख लिख डाले, ए ज़िंदगी एक बार तुम गले लगा ले" हां बहुत तरसी थी वो ज़िन्दगी को, मेरी ज़िन्दगी थी जो।
जूझ रहा अकेला मैं ज़िन्दगी और मौत के दरम्यान में, या तो दाता मौत दे दे, या ज़िंदगी तु गले लगा ले।
प्रेम बजाज
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