क्या मांगती हूं मैं तुमसे?
क्यूं हर वक्त मुझे दुत्कारा जाता है, क्यूं मेरे वजूद को नकारा जाता है,
मैं भी उस ईश की कृति हूं, जिसने सारा जहां बनाया है,
उसी ने बनाए धरती और आसमां, उसी ने संसार रचाया है,
जब ईश ने दिया है हक बराबर का तो क्यों मुझे जूती की नोक पे ठहराया जाता है।
क्या मांगती हूं मैं तुमसे? कभी तख्त-ओ-ताज़ की चाहत नहीं की,
ना चाहत ऊंचे ओहदे की, ना शोहरत की कभी तुमसे मैंने मांग की,
दो बोल प्यार के बोल कर पहलू में जगह दे दो, बस इतनी ख्वाहिश की,
सरताज बना सर पे रखा तुम्हें, खुदा बना तुम्हारी मैंने इबादत की।
क्या तुम्हें नहीं पता कि मैं तुम पर ही मरती हूं,
हो रूप चाहे कोई मेरा, बेटी, बहन, बीवी या मां, बस तुम्हारा ही मैं दम भरती हूं,
तुम जो दे दो भाल पर एक स्नेह भरा चुम्बन, मैं तन-मन तुमपे न्योछावर करती हूं,
सर पे ना सही, दिल में मिलेगी जगह मुझे, इस की अपेक्षा करती हूं।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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