पीने के बाद तेरी याद आई,पहले आती तो पीते ही क्यों,
पीते हैं अब इसलिए कि तुझे भूला ना सके, वरना पीने
की किसको गरज़ पड़ी।
मयखाने का रूख करते हैं हम इसलिए कि शायद तेरे नैनों सी कोई मदिरा मिल जाए,
रहते हैं नशे में तो अभी तक ज़िंदा है, वरना होश में रह कर तो मर ही जाते।
सुना है दैरो-हरम में पीने पर मनाही है, मगर हमारा मन्दिर- मस्जिद ही तो मयखाना है,
छोड़ कर खुदा का घर बुतकदा का सजदा करने लगे, यार की सूरत में खुदा का नज़ारा करने लगे।
हम छोड़ कर सारा जहां दिन-रात कूचे में उनके बसर करने लगे,
वो बेवफ़ा ऐसे निकले सामने हमारे ही ग़ैर का दम भरने लगे।
रकीबों की आगोश में वो टहला करते हैं, किस तरह
समझाएं उन्हें यूं जला कर हमें, ना यूं दिल बहला करते हैं।
वो कहते हैं हमें मय की लत है, भला कोई पूछे उनसे नयन तो उनके नशीले थे, भला इसमें हम कहां कसूरवार हैं,
वो पिलाते रहे हमें नशीले नैनों से, हमें शराबी बना दिया, जब लग गई लत हमें तो हमसे नाता ही छोड़ दिया।
कोई समझाए उस बेमुर्रव्वत को इस कदर आशिक को तड़पाना ठीक नहीं,
एक बार पिला के मय लबों की, दूसरे प्याले के लिए तरसाना ठीक नहीं।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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