वो परदेशी कुछ अपना सा लगता है, ना जाने क्यूं जान-पहचाना सा लगता है, जब वो आंखें मिलाता है तो एक नशा सा चढ़ता है, सांसों की महक से उसकी तन- बदन महक उठता है, हां वो परदेशी मुझे अपना सा लगता है।
नहीं पास मेरे मगर पास वो रहता है, हर पल, हर स्वास वो मेरे तन में बसता है, उर-आंगन में हर पल वो मचलता है, दिल की धड़कन के साथ धड़कता है, हां वो परदेशी मुझे अपना सा लगता है।
शब-भर जागती रहती हूं तो होता है अहसास उसका मानो वो आस-पास है, लेती है नींद अंगड़ाई जब तो ख़्वाबों- ख़्यालों में भी वही दिखता है, वही तो है सनम परदेशी मुझे अपना सा लगता है।
है चाहत मेरी एक तरफा ही सही, वो ना चाहे तो मेरा क्या हक है उस पर, उसकी तस्वीर से ही दिल बहलाया करते हैं, हम याद आएं ना आएं उसे, हम तो हर सांस याद किया करते हैं, कभी पकड़ ले हाथ मेरा ये सपना सा लगता है, हां वो परदेशी मुझे अपना सा लगता है।
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