तलाक का तमाचा है बहुत दर्दीला, लगे जिसके मूंह पर कर दे हर पेंच ढीला,
किसने बनाया तलाक को ना सोचा ना समझा, नामुराद चीज़ को भला क्यूं बना डाला।
होता क्यूं तलाक भला जो थोड़ी सी समझदारी बरत लेते,
ना दिखावे के झमेले में पड़ते, ना चादर से बाहर पैर निकालते।
देख महलों की ऊंची शान, तोड़ दिया अपना मिट्टी का मकान,
साइकल अपनी बेच डाली, पड़ोसी के जैसी बड़ी कार ले ली उधार।
कभी किसी के बहकावे में आकर आपस में कर बैठे खट-पट,
तू-तू, मैं-मैं बढ़ा ली इतनी, ना सोचा, ना समझा, लिया तलाक झटपट।
क्यों दिलों में यूं दूरियां आ जाती हैं, क्यों बच्चों और परिवार का ना सोच पाती है,
कोई मांग करें दहेज की पूरी ना कर सकने पर नारी तलाक की अर्ज़ लगाती है।
कहीं नारी करें मनमानी, घर-परिवार में ना निभा पाती है, बात तब तलाक तक आती है,
थोड़ा सा एडजस्टमेंट का हुनर भी सीखें दोनों नर और नारी तो भला तलाक की औकात कहां रह जाती है।
कहीं कोई बीबी करें गुलामी तो बेहतर, शौहर थोड़ी सी कर दे तीमारदारी तो ताने सुनाए जाते हैं,
गुलाम जोरू का कह कर उसे हर घर के मर्द भड़काए जाते हैं, ऐसे घरों में तलाक के नारे भी लगाए जाते हैं।
कहीं कोई कुलछनी या बांझ बता कर बेइज्जत किया जाता है,
कहीं कोई शराबी या ज़ालिम इन्सान से ले तलाक पीछा छुड़ाया जाता है।
क्यूं ना सात फेरों का पवित्र बंधन पवित्रता से निभाया जाता है,
क्यूं ना वचनों का मान और सिंदूर का गर्व सबसे बरकरार रखा जाता है।
छोटी-छोटी बातों पर तलाक ले-देकर, बच्चों और परिवार का भविष्य अंधकारमय बनाया जाता है,
कैसा ये चलन है, जो ना बुज़ुर्गों का लिहाज, ना धर्म, संस्कृति का मान, ना बच्चों का भविष्य बनाया जाता है।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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