पर्दा जिसमें स्त्रियां अपना चेहरा साड़ी के पल्लू या दुपट्टे से ढकती हैं, जिसे घूंघट ,घुमटा, लाज, ओढ़नी, चुनरी, झुण्ड आदि कहा जाता है। पर्दे का कारण शायद कोई भी स्पष्ट ना कर सके।
लेकिन एक सवाल फिर भी कचोटता है कि आखिर #पर्दा क्यों??
कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं को अपना शरीर मर्द से ढकने को पर्दा करना कहते हैं, ऐसा क्यों?
क्या पुरुष मांसाहारी जानवर है और स्त्री उसका शिकार, जो हर समय उसे पर्दे में रखा जाए, अगर बांधना ही है तो जानवर को बांधा जाए ना कि स्त्रियां ही ज़ुल्म का शिकार होती रहे। उस पर पर्दा के लिए हम पुत्र वधु को ही क्यों चुनते हैं, वो भी किसी की बेटी है, कुछ लोगों का मानना है कि पर्दा प्रथा से पुरुष कामुकता को वश में किया जा सकता है, तो क्या पुरुष की कामुकता इतनी बढ़ गई कि उसे अपनी ही महिला साथी को पर्दे में कैद रखने की आवश्यकता हो गई। इसका अर्थ ये हुआ कि जिस प्रांत में पर्दा प्रथा होगी वहां दुराचार नहीं होगा, जबकि हकीकत ये है कि सबसे ज्यादा दुराचार वहीं होता है, जिस चीज़ को हम छुपा कर रखेंगे उसे देखने की लालसा उतनी ही बढ़ेगी।तन ढकने या पर्दा करने से पुरुष की गंदी सोच पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता।
कुछ लोगों का मानना है कि यदि बहु पर्दा नहीं करेगी तो उनका मान-सम्मान कम हो जाएगा, तो क्या मान-सम्मान पर्दे में ही होता है? शर्म और लिहाज तो ऑंखों में होता है। कुछ का मानना है कि पर्दा ना करने वाली स्त्रियों का शील-धर्म नष्ट हो जाता है, तो गुजरात, महाराष्ट्र, मद्रास की स्त्रियों ने कौन सा शील-धर्म नष्ट किया है अपितु इन्हीं प्रांतो ने भारत में नारी धर्म का वास्तविक मान रखा है। राजा राम मोहन राय ने इस प्रथा का कड़ा विरोध किया था कि अगर समाज को आगे ले जाना है तो इस कुरीति को खत्म करना होगा।
पर्दा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है ढकना। पर्दा इस्लामिक देशों की प्रथा भी जो आज के समय में बुर्के के रूप में दिखाई देती है, पुरुषों की नज़र से बचाने के लिए इस्लामिक महिलाओं को पर्दा अर्थात बुर्के में रहने कुछ हिदायत दी जाती है, हिन्दू धर्म में पर्दा इस्लाम की देन है। मध्यकाल में निरन्तर हो रहे इस्लामी आक्रांत और पुरूषों की बुरी नज़र से बचने के लिए हिन्दू औरतें पर्दे में रहने लगी।
माना जाता है कि विविध रूप से भारत में पर्दा प्रथा का प्रचलन 12वीं सदी से शुरू हुआ। 10 वीं सदी के आसपास राजपरिवारों में स्त्रियां बिना पर्दे के आया -जाया करती थी। 15 वीं16वीं सदी के आते-आते यह पर्दा उत्तर भारत की स्त्रियों की सामान्य जीवन शैली बन गया, 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में विरोध के कारण इस प्रथा में कमी आई, खासकर राजस्थान में पर्दा का प्रचलन अधिक है, हालांकि शहरों में पर्दा को अस्वीकार किया गया मगर गांवों में अभी भी पर्दा प्रथा का प्रचलन है। पर्दा के कारण स्त्रियां सहज नहीं अनुभव कर सकती, पर्दा गुलामी का सा अहसास दिलाता है, कई बार ना चाहते हुए भी लोक लाज के कारण उन्हें पर्दा करना पड़ता है, नारी का जीवन घर तक ही सिमट कर रह जाता है, कहीं बाहर जाना तो दूर अस्वस्थता की दशा में ईलाज तक नहीं करवाती।
आज के परिप्रेक्ष्य में पर्दा के घातक नुकसान ही हैं, भारत के ऐतिहासिक स्त्रोतों और ग्रंथों में कहीं भी पर्दे का ज़िक्र नहीं मिलता, वेद और उपनिषद में भी कहीं पर्दे का प्रमाण नहीं मिलता, हिन्दुओं के महत्वपूर्ण ग्रंथ महाभारत एवं रामायण में भी कहीं पर्दे का प्रमाण नहीं मिलता, अजन्ता, ऐलोरा की गुफाओं में बने चित्रों में भी स्त्री को बिना घुंघट के दिखाया गया है, मनु और याज्ञवल्क्य ने भी स्त्री के लिए कुछ नियम बनाए थे मगर उनमें भी पर्दे का उल्लेख नहीं था, इससे स्पष्ट है कि पर्दा कभी भी भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा, ईशा से 500 साल पहले रचित निरूक्त ईशा में स्त्री और समाज के बारे में व्यापक वर्णन है जिसमें स्त्री पुरुष के समान ही सभी कार्यों में भाग लेती थी। स्त्रियां खुले सिर ही रहा करती थी।
पर्दे का कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन स्त्री अपनी क्षमता खो देती है, और खुद को असहाय, निर्बल, कायर, भीरू समझने लगती है, पर्दे की आढ़ में उसे कमज़ोर और अविश्वसनीय का अहसास कराया जाता है। अगर हम आज की बात करें तो अन्तरिक्ष में जाने वाली पहली भारतीय महिला #कल्पना चावला, मुक्केबाजी में एम.सी.मैरी कोम, कान्स में जूरी सदस्य ऐश्वर्या राय, ओलम्पिक खेलों में पी.वी.संधु, बेडमिंटन में सान्या नेहवाल, ओलम्पिक में पी.टी.ऊषा, भारतीय सेना की पहली लेफ्टिनेंट कर्नल जे. फरीदा रेहाना जैसी अनेकों महिलाएं हैं, जिन्होंने देश का नाम रौशन किया, क्या ये घूंघट में रहकर अपने कामों को बेहतर अंजाम दे सकती थी। घुंघट स्त्री के लिए आवश्यक है इस परिप्रेक्ष्य में ऐसा सोचना मुर्खतापूर्ण है ।
प्रेम बजाज
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