कहते हैं लोग नारी की सोच नर से है, कभी किसी ने सोचा है, नारी ने ही नर को बनाया है, फिर क्यों कहते कमज़ोर नारी की काया है।
माना कि झुक कर स्वीकार करती है वो, जो सोच देता नर, उसी पर चलती है वो, होने पर भरपूर के बावजूद खाली खुद को दर्शाती है वो।
लगे ना नर के अहम को ठेस जिस सोच पर चलाता नर उसी पर चलती है वो, करती सब कुछ कबूल क्योंकि उसके प्यार में पिघलती है वो।
होते हुए नदी विशाल धरा सी प्यासी रहती है वो, मिल जाने को समुद्र में उत्तेजित रहती है वो, पीकर नर के इश्क का जाम मोहब्बत में सराबोर रहती है वो।
लुटाती सब पर जो बेइंतहा मोहब्बत, खुद मोहब्बत की तड़प में तरसती है वो,उंडेल देता जब पुरुष खुद को उस पर, उसके लिए लुट जाती है वो।
लेकर उसका वजूद उसको लौटाती है वो, होते हुए सम्पूर्ण भी अधूरी रहती है वो।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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