माना भारत देश संस्कृति संस्कार और परंपराओं का देश है, मगर जब परंपराएं पाखंड बन जाती है तो बोझ लगने लगती है।
कभी परंपरा पाखंड बन जाती है और कभी पाखंड परंपरा बन जाते है, परंपरा कोई भी हो, उसे निभाने से पहले से जान लेना चाहिए ।
जिस तरह से आज कल भाद्रपद में गणेश विसर्जन, सावन में शिवलिंग का जल अभिषेक इत्यादि बहुत ही परंपराएं चर्चित है।
जैसे दिवाली, होली इत्यादि अनेक त्योहारों पर नए कपड़ों का चलन निकल पड़ा है।
नए-नए और महंगे तोहफों का चलन है, किसी को दिल से बधाई दो ।
तोहफों की अदला बदली से बधाई और शुभकामनाएं बढ़ नहीं जाती, बल्कि बोझ बन जाती है।
नई और महंगे से महंगे कपड़ों का दिखावा करने से जो नहीं खरीद सकता उसने हीन भावना आ जाती है त्योहारों के नाम पर यह दिखावा क्यों ?
इन बातों के बारे में ना तो अधिक लोग जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं। केवल एक भेड़ चाल की तरह चलन बढ़ता जा रहा है।
सावन में जल अभिषेक के लिए कोई विरला ही गंगा से जल लेने के लिए जा पाता था, जिसे कांवड़ लाना कहते हैं, और जल लाने वाले को कांवड़िया कहते हैं।
नंगे पांव चल कर गंगा जी से गंगा जल लाया जाता है और उसी गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता था।
इतनी दूर पैदल चलने के कारण कुछ लोगों के पांव में छाले भी पड़ जाते थे एवं अत्याधिक थकान के कारण कुछ लोगों में कमजोरी बहुत आ जाती थी।
लेकिन आज के समय में लोगों ने इस परंपरा को पाखंड बना दिया है, क्योंकि सुविधाएं भी अधिक हो गई है।
कांवड़िए जिस शहर या गांव से गुजरते हैं वहां के लोग कांवड़ियों की सुविधा के लिए इंतज़ाम करते हैं जैसे कि रहना और खाना इत्यादि, और आजकल तो कांवड़ियों की पैरों की मालिश का भी इंतजाम होने लगा है।
इन सुख-सुविधाओं के चलते किसी कांवड़िए को कोई परेशानी नहीं होती, इन्हीं सुख-सुविधाओं की वजह से आज कल स्त्रियां तो क्या बच्चे भी कांवड़ लेने जाने लगे हैं। लेकिन अब यहां परंपराएं और श्रद्धा कम और पाखंड अधिक होने लगा है।
इसी तरह गणेश विसर्जन इत्यादि भी त्योहारों को पाखंड बना दिया गया है। घर घर में गणेश जी की मूर्ति लाई जाती है अपने रुतबे के अनुसार जो जितना बड़ा सेठ वह उतनी बड़ी मूर्ति लाएगा, उतना ही बड़ा लंगर-भंडारा, पाठ-पूजा इत्यादि करके दिखाएगा कि मैंने इतना किया है। उसके बाद वह भगवान की मूर्तियां कूड़े की तरह पड़ी होती हैं।
यह परंपराएं हैं या प्रखंड है? इंसान किसे धोखा दे रहा है? खुद को या ईश्वर को? ऐसे पाखंडों से ईश्वर खुश होगा क्या? क्या ऐसे पाखंड करने से ईश्वर का अपमान नहीं? परंपराओं को परम्पराओं की तरह निभाना चाहिए ना कि पाखंड बनाना चाहिए।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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