ना जाने कैसा रंग डाला
ना जाने कैसा तुने मुझ पर रंग डाला , तन पर तो कोई रंग नहीं है , मन रंगों से भर डाला ।
मन मेरे में चुपके से आके बस गया एक नटखट ग्वाला , कोरी मन-चुनर को उसने भिगो डाला ।
भर नैनों में लाज ये पागल मन मचलता है , अल्साए नैनन भी तो सपनों में खो जाते हैं ।
कल्पना में मेरी कितने रंग बस गए , बताए नहीं बता पाती हूं , मन-मन्दिर में मोहिनी सूरत देख - देख मुस्काती हूं ।
उसके मृदु स्वागत के लिए ऊर-द्वार खुला जाता है , चुपके से वो ग्वाला आकर मेरे मन -मन्दिर में बस जाता है ।
ढलका जाता आंचल मेरा , पांव थिरक - थिरक जाते हैं । हर धड़कन मेरी गा रही गीत है, भाव चंचल हुए जाते हैं , मानो किसी गंगा तट पर यौवन धुला-धुला जाता है ।
मानो जमना तीर पे चीर कोई चुराता है, मानो जैसे रखने को लाज चीर कोई बढ़ाता है, मानो मीठी-मीठी तान से घायल किए कोई जाता है, हां चुपके से वो ग्वाला मेरे ऊर-आंगन में आ जाता है ।
प्रेम बजाज
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