दो जिस्म एक जान हो जाए हम,
चलो इस तरह से इश्क लड़ाए हम।
चांदनी में यूं ही लिपटे रहे दो बदन,
जैसे हो एक जान और दो तन।
वो देखो धरती- अम्बर भी दोनों मिल रहे,
वो ढलता सूरज दे रहा चांद को सदाएं,
आओ हम भी संग सूरज के चांद को बुलाए।
धरती- गगन का मिलन हमें बता रहा,
कैसा है इश्क-ए-मिलन समझा रहा।
रिमझिम बारिश की फुहार हो,
बूंदों से जब जले तन-बदन बुझाने को आग संग दिलदार हो।
चांद का ओढ़ना हो, महबूब की बाहों का सिरहाना हो,
यार के सीने पे हो सर, और प्यार की चादर हो।
सांसें सांसों से करती बातें हों, धड़कने भी आज इश्क में बह जाती हों।
तेल प्यार का और इश्क की बाती हो,
जले बदन बन दीप, रौशनी प्रेम की फैलाते हों।
ता-उम्र जलता रहे इश्क का दिया,
वक्त-ए-रूख़स्त का ना आलम आए कभी,बेशक दमे-आखिर हो।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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