चांद में देख कर अक्स तेरा, हम शब-ए-हिज्रा गुज़ारा करते हैं,
तिश्नगी का आलम तो देखो हमारा, हम चांद को महबूब माना करते हैं।
मगर जब आते हो सामने तुम, तो मौजू-ए-गुफ्तगु ना कोई रहता है, बस तुझे ही हम ताका करते हैं।
हवा जब तेरे बदन से टकरा कर आती है, ना जाने कैसा सुरूर छा जाता है, मेरी सांसें महक जाती हैं।
परवाना सा जलता हूं शब-भर, तु शमां बन रौशन जहां औरों का किया करती है।
जलाती है तु औरों को, और कहती है कि खुद जला करती है।
छलकती है मदिरा तेरे नैनों से,होंठों से अमृत बरसाते हो,सुर्ख गालों पे चमकती है लाली, रह कर दूर क्यों हमें सताते हो।
झुक जाऊं आसमां के जैसे, आगोश में मुझे समां लो तुम, ख़ामोश दिल दोनों के करें गुफ्तगू, ना मैं कुछ सुनूं, ना तुम कुछ कहो।
चढते सूरज सा परवान चढ़े इश्क हमारा, रूह से रूह मिला करे, दो बदन एक जान बन जाएं, मौन सहमति प्यार की रहे, ना कुछ कहे ना कोई शिकवा-गिला करें।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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