लैंगिक असमानता
लैंगिक असमानता सदियों से ही एक सामाजिक मुद्दा है। भारत में 1000 लड़कों में 908 लड़कियां हैं, कहीं तो बेटी को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है, यदि जन्म ले भी ले तो हर क्षेत्र में, खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा इत्यादि को लेकर भेदभाव किया जाता है।
लैंगिक असमानता का कारण अक्सर लोग कन्या भ्रुणहत्या को मानते हैं, लेकिन असल में लैंगिक असमानता का कारण भ्रुणहत्या नहीं।
जब पेड़ पर लगे किसी फल में कीड़ा लगता है तो हम ये नहीं कहते कि फल या तना खराब है, ना ही फल या तने में दवाई डालते हैं, हम जड़ में दवाई डालते हैं, तो हमें लैंगिक असमानता की जड़ को खत्म करना होगा। कन्या भ्रुणहत्या के कारण को ही समाप्त करना होगा।
सोचिए, कन्या भ्रुणहत्या क्यों होती है, जब किसी स्त्री का यदि दो माह का गर्भ भी गिरता है, अर्थात (मिसकेरेज) तो वो मां ना जाने कितने दिन, कितनी रातें, रो-रोकर बिताती है। उस अनजान शिशु जो ना जाने बेटा था या बेटी के लिए तड़पती हैं, तो क्या कोई स्त्री चाहेगी कि उसके अपने ही अंग को काटा जाए, कैसे वो बर्दाश्त करेगी कि उसकी कोख में पल रहे बच्चे को मशीनों से काटकर फेंका जाए, या कोई पुरुष चाहेगा कि उसके अंश को बेदर्दी से खत्म किया जाए।
लैंगिक समानता एक ऐसी नींव है जिससे हम विकास रूपी समाज बना सकते हैं। लैंगिक समानता का अर्थ है कि स्त्री एवं पुरुष को दायित्व, अधिकार, रोज़गार इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार हों। लैंगिक असमानता अर्थात लैंगिक आधार पर महिलाओं से भभेदभाव।
परंपरागत तौर पर स्त्रियों को कमज़ोर वर्ग में देखा जाता है। स्त्री एवं पुरुष समाज के मूल आधार है और लैंगिक असमानता इनमें पनप रही एक खाई है। महिलाएं घर और समाज दोनों जगह भेदभाव की शिकार हैं।
प्राचीन या वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ थी, उन्हें सभा और समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में समान अधिकार था। अपाला और लोपामुद्रा जैसी महिलाओं ने वेदों की रचना में योगदान दिया, लेकिन परवर्ती काल में महिलाओं की स्थिति कमज़ोर होती जा रही है।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचना के आधार पर 2020 में 153 देशों में से भारत 112वें नम्बर पर रहा। इससे यह साफ ज़ाहिर है कि हमारे देश में लैंगिक असमानता ने किस हद तक जड़ें पकड़ी हैं। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचना के आधार पर लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए हज़ारो वर्ष लग सकते है, हेलिरी क्लिंटन के अनुसार, "महिलाएं संसार में सबसे अप्रयुक्त भंडार हैं" सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, विज्ञान, मनोरंजन हो या खेल-कूद या शिक्षा के क्षेत्र में, हर स्थान पर नर-नारी का भेदभाव व्याप्त है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन दिया जाता है, विज्ञान के क्षेत्र में या तो स्त्रियों को अनुमति नहीं या उन्हें कम मेहनत वाले प्रोजेक्ट दिए जाते हैं, इसी से ही देखा जाता है कि आज हम मिसाइल मैन अब्दुल कलाम जी के नाम से सभी परिचित हैं, लेकिन मिसाइल वुमैन आफॅ इंडिया टेसी थाॅमस के नाम से परिचित नहीं। मनोरंजन के क्षेत्र में अभिनेत्रियों को अक्सर अभिनेताओं से कम पारश्रमिक दिया जाता है, उनके किरदार को मुख्य किरदार नहीं समझा जाता। खेल के क्षेत्र में भी महिलाओं को कम समझा जाता है, और उन्हें पुरस्कार राशि कम दी जाती हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों के खेलों का विस्तार भी अधिक है। प्रगति के बावजूद भी भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त है, #शबरीमाला और तीन तलाक़ और दरगाह में प्रवेश जैसे मुद्दे पितृसत्तात्मक मानसिकता को दर्शाते हैं।
भारतीय समाज में महिलाओं का मुख्य कार्य घर संभालना और बच्चों का लालन-पालन ही माना जाता है, यहां तक कि घर के अहम फैसलों में भी महिला की भुमिका कम रहती है। महिलाओं के रोज़गार की अंडर रिपोर्टिंग की जाती है, अर्थात जो महिलाएं खेतो, घरों अथवा अन्य कई ऊद्धमी काम अवैतनिक कार्यों को घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता, उच्च शिक्षा तथा व्यवसायिक शिक्षा क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में नामांकन कम होता है। लैंगिक समानता लाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, लैंगिक समानता का अर्थ है स्त्री और पुरुष को समान अधिकार, दायित्व, एवं समान रोज़गार के अवसर मिले। बेशक #बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, वन स्टापॅ सेंटर योजना, महिला हेल्पलाइन योजना, महिला शक्ति केन्द्र# जैसी योजनाओं से महिला सशक्तिकरण का प्रयास किया जा रहा है, मगर हमें लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए बलात्कार, दहेज अथवा बेटे-बेटी में भेदभाव जैसे कुविचारों, कुप्रथाओं को भी समाप्त करना होगा, हर क्षेत्र में स्त्री के प्रति भेदभाव समाप्त करना होगा, ताकि कोई भी बेटी के जन्म से डरें नहीं। जब कन्या भ्रुणहत्या समाप्त होगा स्वत: ही लैंगिक असमानता भी समाप्त हो जाएगी ।
प्रेम बजाज
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