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ज़िंदगी

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prem bajaj
prem bajaj 10 May, 2022 | 1 min read

जिंदगी अगर किताब होती


होती ग़र ज़िंदगी एक किताब सुनहरे उसमें ख्वाब लिखता, 

करके दूर गमों को खुशियों के मैं उसमें रंग भरता,

 ना लिखता जुदाई कभी नसीब में किसी की, मिलन उसमें बेहिसाब लिखता।


होती ग़र ज़िंदगी एक किताब तो लिखता चैन और अमन और खुशियां बेहिसाब लिखता,

 ना लुटती इज्जत किसी की ना चेहरा किसी का तेजाब से जलता,

ना जलती कोई बहु दहेज के लालचियों के हाथों, 

ना बारात लौटती किसी बेटी की ना किसी बाप की यूं सरेआम पगड़ी उछाल जाती,

 ना कोई बिन ब्याही बेटी मां बनती ना कोई अजन्मी बेटी मारी जाती।


होती ग़र ज़िंदगी एक किताब तो किसी मजलूम पर ना होता जुल्म कोई, 

ना वृद्धाश्रम, ना अनाथ आश्रम लिखता, ना भाई, भाई 

का खून करता, ना मात पिता का तिरस्कार लिखता,

ना लड़ता कोई धर्म के नाम पर, ना जात-पात के नाम पर कोई झगड़ा करता,

बस इंसानियत का ही मैं एक मजहब लिखता।


प्रेम बजाज ©®

जगाधरी ( यमुनानगर)

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