"ओह! हाय ये हमारी किस्मत, दो देवरों और देवरानियों के रहते हुए भी इस बुढ़ापे में हमें इतना कष्ट काटना पड़ रहा है, जवान है वो लेकिन जिम्मेदारी का बोझ उठाना ही नहीं चाहते और हमें इस बुढ़ापे में मांजी को संभालना पड़ रहा है," अपने किस्मत को कोसती हुई रत्ना जी ने कहा।
महेश जी की उम्र साठ साल की हो गई थी और उनके घुटने में दर्द के कारण अब उन्हें चलने में बहुत दिक्कत हो रही थी। रत्ना जी पचपन साल की थी और अधिकतर बीमार ही रहती थी। इस उम्र में मांजी जिन्हें परलाइसिस था, उनको संभालना अब संभव नहीं हो पा रहा था।
नौकरी का हवाला देकर, देवर - देवरानी मांजी को रखने से साफ इंकार कर देते थे। अब महेश और रत्ना जी का शरीर भी जवाब दे रहा था फिर भी अपने कर्तव्य से दोनों कभी पीछे नहीं हटे लेकिन कभी - कभी रत्ना जी का दुःख गुस्से के रूप में बाहर निकल आया था।
"रत्ना घबराओ मत, मैंने और तुमने शुरू से ही घर की सारी जिम्मेदारियों को पूरी करने के साथ - साथ सारे दुःख - सुख भी साथ मिलकर काटे हैं तो ये भी काट लेंगे।", महेश जी ने रत्ना को ढांढस बंधाते हुए कहा।
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