मेरा कुसूर क्या था

यह कविता मानव की कुत्सित मानसिकता को दर्शाती है, जिसने हैवानियत की सारी हदें पार कर ली है। उसी पर आधारित यह छोटी सी कविता है।

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Pragati tripathi
Pragati tripathi 17 Jan, 2020 | 1 min read

हंसती खिलखिलाती बाबुल की बगिया की कली थी मैं

उन्मुक्त होकर गगन को छूने का सपना रखती थी मैं

मां लाड़ लगाती, बलाएं लेती, कहीं उनकी लाडली को नजर न लग जाए

मां - बाप का सपना थी मैं, थे मुझसे वो आस लगाए

चली निर्भीक प्रगति पथ पर अपने असंख्य ख्वाब सजाए

नियति को था कुछ और मंजूर, लड़की थी मैं, क्या यही था मेरा कसूर

चली छूने सपने मैं मस्त गगन में, कुछ शिकारी थे घात लगाए

अपनी पिशाची नजर गड़ाए

जकड़ लिया, दबोच लिया मुझे, लाख गिड़गिड़ाई

पर हैवानों को दया न आई, नोंच डाला मेरी रूह को

क्षत - विक्षत किया मेरे मन को और तन को

हार न मानी मैंने, लड़ती रही अंत समय तक, उन शैतानों से

अधमरी हुई, फिर भी ना दया आई उन्हे

हैवानियत की हद पार कर दिखाई

एक पल मैं सौ बार मरी मैं

फेंक दिया बीच सड़क पर मेरे बेजान शरीर को, उन्हें लगा अब मरी मैं

रूह तो कब की निकल चुकी थी, बस देह भर ही पड़ी रही मैं।


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