जितना उसे रंगों से प्यार था, उतना ही रंगों को उससे बैर। प्यार और ममता के रंग जन्म लेते ही छिन गए। बचपन के रंग में भी न रंग सकी क्योंकि खेलने की उम्र में ब्याह दी गई।आज कई वर्षो से उसकी मांग सूनी थी।
होली का दिन, चारों तरफ रंग - उमंग की बौछार हो रही थी। ढोल नगाड़े बज रहे थे। कोई भंग के नशे में चूर था तो कोई प्रेम के रंग में सराबोर था। महुआ के कमरे की एक खिड़की घर के आंगन में तो दूसरी खिड़की बाहर मैदान की ओर खुलती थी, जहां लोग होली के रंगों में डूबे, बच्चे एक - दूसरे को रंग लगा रहे थे।अपने कमरे की खिड़की से ये दृश्य देख रोमांचित हो रही थी लेकिन अपने जज्बात को काबू में करना सीख गई थी। आंगन में सास को पूरी - पकवान बनाते देख मुंह से टपकती लार को रोकने का उसका प्रयास भी विफल हो रहा था। बालमन कितना सब्र करें।
धीरे से कमरे से बाहर आकर बोली, अम्मा.. बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को दो ना!
अब किसको खाएगी कलमुंही, बेटे को तो खा गई, तब भी तेरी भूख ना मिटी। जैसे - जैसे तेरी उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे सुरसा की तरह तेरी भूख बढ़ती जा रही है।, अम्मा ने तंज कसते हुए कहा।
तभी कमली जीजी दरवाजे से अंदर आई और आते ही अम्मा से बिना पूछे सारे पकवान में से एक थाली लगाकर महुआ को दे दिया। महुआ थाली लेकर ऐसे कमरे में भागी जैसे वर्षों की भूखी हो।
"ये तूने क्या किया कमली, महुआ को पकवान देने की क्या जरूरत थी भूल गई वो विधवा है। उसे सादा खाना खाना चाहिए।," अम्मा ने रोड दिखाते हुए कहा।
मैं तो नहीं भूली लेकिन शायद तुम भूल गई कि मैं भी विधवा हूं फिर मुझे क्यों परोसती हो, ये चटपटे, तले - भूनें पकवान?, कमली ने तपाक से कहा।
अम्मा का मुंह सील गया..., कोई जवाब नहीं था उनके पास।
इंसानियत का रंग
समाज की कुरीतियों को दर्शाती लघुकथा।
Originally published in hi
Pragati tripathi
08 Mar, 2020 | 1 min read
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