एक आदत ही तो है जो मेरी नहीं बदलती,
सामने हो रहा गलत और मैं चुप सी रह जाऊँ,
उनको नज़रंदाज़ करके कई गलतियों को भी सह जाऊँ।
किसी का अच्छा नहीं तो मैं बुरा भी नहीं करती,
क्या करूँ एक आदत ही तो है जो मेरी नहीं बदलती।
सोचती हूँ कि बहुत से लोगों को एक साथ खुश कर जाऊँ,
लोग जैसा मुझे भगाए मैं भागी चली जाऊं,
दो पैसों की लालच में उनको मैं कठपुतली वाला नाच भी दिखाऊँ,
पर मुझसे किसी की चाटुकारिता नहीं बनती,
क्या करूँ एक आदत ही तो है जो मेरी नहीं बदलती।
जो जैसा है उसके लिए वही भावना मैं रखती,
झूठी तारीफें भी लोगों की मुझसे नहीं निकलती,
झूठे को झूठ तो सच को सच कह देती,
इसलिए दिखावटी लोगों से मेरी ज्यादा नहीं बनती,
क्या करूँ एक आदत ही है जो मेरी नहीं बदलती।
@पूनम चौरे उपाध्याय
मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित
Comments
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वाह.....!
धन्यवाद चारू
वाह बहुत खूब 👏
धन्यवाद एकता जी
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