सावन का मज़ा तो तब था,जब माँ अपने हाथ की चाय बनाकर लाया करती थी,
आज कोई मत नहाना कहकर,खुद नहाने चले जाया करती थी।
क्या ज़रूरत थी,इतना भींगने की कहकर,माँ कितनी घबरा जाया करती थी,
तुझे ठंड लग जाएगी कहकर,खूब फटकार लगाया करती थी।
आज वो बारिश की बूंदे और वो मौसम ही कहाँ है,
जब माँ सबको गर्मागरम समोसा बनाकर खिलाया करती थी,
फिर बालकनी में बैठाकर खूब पढ़ाया करती थी।
ना जाने,ऐसा सावन का मौसम कब आएगा,
जब माँ जैसी चाय और समोसा कोई हमें खिलायेगा,
शायद ही इतनी फ़िक्र करने वाला अब कोई और मिल पायेगा।
मौलिक, स्वरचित
@पूनम चौरे उपाध्याय
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