आज दामाद अपनी पहली होली मनाने आ रहा था । घर में तैयारियां जोरों से चल रही थी । गुजिया ,पापड़ी ,बालूशाही सब तैयार हो रहा था।
तभी मेरा ध्यान बेटी की तरफ गया, वह अपनी पैकिंग कर रही थी। मैंने कहा "राजुल बेटा अभी से पैकिंग!"
" हां बाबा ! बहुत सारा सामान फैल गया है। इनके आते ही, अपन सब होली मनाने में व्यस्त हो जाएंगे और पता नहीं क्या छूट जाएगा? चार दिन ही बचे हैं लौटने को ...इसलिए अभी से पैकिंग कर रही हूँ।"
वह वापस अपनी तैयारी में मशगूल हो गई और मैं वही खड़ा रहा ।अंदर कुछ दरक सा गया, कि मेरी छोटी सी लाडो, आज कितनी परिपक्व हो गई !
समय से पहले काम करने की, उसकी आदत कितनी पसंद थी मुझे !पता नहीं मगर आज क्यों अच्छा नहीं लग रहा था?
पत्नी ने कहा ! "गुजिया खा कर देखिए ! भरावन का स्वाद कैसा लग रहा है ।"
मैंने मुंह में एक कौर डाला और बुद बुदाया "कसैला" ...पत्नी अपने काम में अति व्यस्त थी, बोली! "अच्छी बनी है ना !"
मैं मुस्कुरा कर बोला "बहुत अच्छी बनी है।"
आज घर में बहुत रौनक लगी हुई थी, मैने गौर किया ,मेरी मासूम सी ,नाज़ुक सी बच्ची ...दामाद के आते ही कुशल परिचारिका बन गई है,पिता होने के नाते उसका यह रूप मुझसे देखा नहीं गया ।
दामाद के हाव भाव मुझे कुछ याद दिला रहे थे ...हू ब हू ..मेरी ... मैं ...अरे ! नहीं नहीं ! ...मैं..मैं कतई ..ऐसा नहीं हूँ ।
मैंने अपने विचार और सर दोनों को जोर से झटका।
मेरी पत्नी मुझे कपड़े देकर बोली ,"जल्दी से इन्हें पहन लिजीये, रंग गुलाल लग जाएगा, और आपकी चाय यहीं कमरे मे ला दूँ? दो बिस्किट के साथ खा लीजिए। बी.पी की दवाई लेना मत भूलिए।"
मैंने मन ही मन सोचा तो क्या मैं भी.. मेरी पत्नी भी .....अरे इस बात पर मैंने गौर कैसे नहीं किया ? हम और हमारे बेटी- दामाद ...स्त्री-पुरुष की उसी परिधि मे चल रहे थे,।
रंग गुलाल शुरू हो चुका था। दामाद से मिलने और होली मनाने ...सारे नाते, रिश्तेदार, अड़ोस -पड़ोस घर में इकट्ठा हो चुके थे।
रह-रहकर दिल में टीस उठ रही थी कि, बिटिया कुछ दिनों में ही चली जाएगी।
पत्नी ने शायद ताड़ लिया था ।
ठंडाई घोलते हुए मैं अपने आँसू भी पोछते जा रहा था। उसने ठंडाई के ग्लास भरे और बोली क्या बात है ? मैंने कहा कुछ नहीं ! शायद गुलाल आंख में चला गया!
उसने अनसुना करते हुए किसी दार्शनिक की भांति कहा "यही चक्र है सदियों से चला आ रहा है! मै और मेरे पापा भी इसी दौर से गुजर चुके हैं"
मैंने ध्यान दिया अब पत्नी की आंखों में भी आंसू थे मगर आंसुओं का आवेग मुझसे भी दुगना।
मैं शर्मिंदा था, उसने, अपनी साड़ी के पल्लू से मेरी आँखे पोछते हुए, गुलाल से तिलक लगाया और कहा! "आपने वही किया जो, होता आया है ,शायद समाज के यही नियम हैं ! हर बेटी और उसका परिवार बाध्य है, हम और हमारी लाड़ली राजुल भी।"
"केवल गल्ती स्वीकार करने से क्या होगा? सुमन ...इसे! सुधारना भी होगा,अब भी भी देर नहीं हुई।"
मैने पत्नी की मांग मे चटक लाल अबीर-गुलाल भरते हुए, अपने ससुर जी को फोन लगाया। होली की मुबारकबाद देकर कहा "पिताजी! हम लोग कल सुबह ही अपने दामाद को लेकर आपके पास आ रहे हैं !
...कुछ देर तक सामने से कोई आवाज नहीं आई.... मैंने भी जल्दबाजी नहीं करी ... उन्हे भी तो वक्त चाहिए था....अपनी आंखों को पोंछने का..... भरे गले को साफ़ करने का....
पल्लवी वर्मा
स्वरचित,मौलिक
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