आज उम्र की इस दहलीज मे गुज़र चुके बचपन को याद करते हुए यूँ ही यादो की पगडंडियो से गुजरते हुए एक कविता।
शीर्षक- यादों की पगडंडी
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याद नहीं, पिछली दफा, कब रंगीन हुआ था आसमान।
कब दिखा था, सफेद, हल्का, बादल, उन्मुक्त उड़ता हुआ।
कब देखा था, चांद इत्मीनान का।
कब छुआ था, सूरज की सोंधी तपिश को।
पता नहीं, कब भींगा था, गुलाब गिरती शबनम से।
पता नहीं, कब सिला था, उधड़ा ख्वाब, अपनी आंखों का।
कब निकले थे, अलमस्त,बेफिकर , होकर घर से ।
कितना स्वाद था ,चिल्हर जोड़कर खरीदे थे, जब समोसे।
पता नहीं, कौन सी चाय पी थी, आंखें बंद करके।
कब ,छिटके तारे गिने थे, बेवजह छत पर लेट के।
क्यों बिना, "इत्तला" के ,वो मौसम चला गया।
क्यों आरजूओं का ,समंदर ,हमको लील गया ।
काश! वो नई किताबों को, सूंघने की ख्वाहिश, फिर मचल जाए ।
काश! वक्त फिर मुड़े ,और यादों की पगडंडियों में पड़ी, वो कटी पतंग, फिर मिल जाए।।
पल्लवी वर्मा
स्वरचित
स्वरचित
रायपुर (छ .ग)
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