आराध्या
✏️कॉलेज की पढ़ाई समाप्त होने ही वाली थी । अब आराध्या के लिए यहॉ अंतिम वर्ष समाप्त होने में मात्र कुछ हीं मांह शेष रहा गई है।
इस कॉलेज में पिछले कई वर्षों से आराध्या पढ़ाई कर रहीं थी। उसने एक लम्बी समय, यहॉ खर्च की है अपनी पढ़ाई पर।
लेकिन अब उसको यहॉ अध्ययन कार्य समाप्त होने वाली है, तथा कुछ ही दिनों के बाद वह अपने गॉव वापस चली जायेगी, उन खट्टे - मिठे अनुभवों को ह्रदय में लिए हुए जो आराध्या को हमेशा परेशान की है।
पढ़ाई के दौरान....
इस कॉलेज से बहुत ही पुरानी रिश्ता बन गया था आराध्या को। कॉलेज के चप्पा-चप्पा को वह बहुत हीं अच्छी तरह से जानती - पहचानती थी । मानो ऐसा लगता था उसे, जैसा की यह आराध्या के लिए कोई कॉलेज न होकर, अपना घर हो ।
तितली की तरह उड़ान भरने वाली आराध्या को जितना अधिक वर्णन किया जाय वह कम पड़ जायेगा प्रोफेसर कृष्ण कुमार के लिए।
उसकी सारे गुणों का वर्णन करना प्रोफेसर कृष्ण कुमार के लिए आज भी संभव नहीं है। प्रोफेसर कृष्ण कुमार का नाम तो कुछ और ही था, लेकिन आराध्या ने उनको एक नया नामकरण कर दी थी - 'कृष्ण।'
यह शब्द अपने आप में बहुत हीं सुन्दर है, प्रोफेसर के लिए।
है न!
शायद किसी के लिए यह नाम सुन्दर हो या न हो, लेकिन कृष्ण कुमार के लिए यह नाम अत्यंत हीं भावुक कर देने वाली थी।
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कृष्ण कुमार आज सुबह से ही आराध्या के बारे में हीं सोच रहें थें।
आज से लगभग पॉच वर्ष पहले आराध्या को देखा था उन्होंने। एक गंगा सी पवित्र ह्रदय लिए हुए, अपने ह्रदय में शुद्धता की कोमल छांव धारण करनेवाली आराध्या, सभी छात्राओं से अलग थी। उसकी सोच से लेकर, जिन्दगी जिने की कला तक, सबकुछ अलग थी इस भीड़ भरी दुनिया में।
कौन अपना है, कौन पराया? कौन प्यार करता है, कौन नफरत? भोली - भाली आराध्या को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं, बस वो सबको खुश कर देने की कला को बखूबी जानती थीं।
बहुत ही प्यारी है वो, अपने आप में। न उसे अपनी खुशी जाहिर करने आती थी, और नहीं वो अपनी दुःख को किसी के सामने प्रकट कर सकती थीं।
वो पल आज भी याद है कृष्ण कुमार को । वो पल उसको यहॉ से हमेशा - हमेशा के लिए चले जाने से पूर्व का पल....
एक - दो मांह का समय का है। जब वह बोली थी, - "सर मेरी ह्रदय में क्या चलती है, मैं उसे बताना तो चाहतीं हूँ, लेकिन बताना कैसे है, यह नहीं जानती। क्योंकि मुझे अपनी फीलिंग्स को प्रकट करने नहीं आती।"
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यह शब्द, शायद कोई और बोली होती तो कृष्ण कुमार इतना सीरियसली नहीं लेतें, लेकिन यह शब्द किसी और की नहीं थीं, यह शब्द आराध्या की थी, जो प्रोफेसर के ह्रदय के उस कोने में हमेशा से धड़कन बनकर धड़कती आ रही थी, जिसे वो कभी दिखा हीं नहीं सकतें थें, लेकिन हमेशा उसे अनुभव तो वो कर हीं रहें थें।
प्रोफेसर यह बात बखूबी जानतें थें कि इस संसार में बहुत कुछ ऐसी बातें होतीं हैं, जिसे तो देखा जाना असंभव सा लगता है, परंतु उसे अनुभव बहुत आसानी से की जा सकती है।
उसी में प्रोफेसर के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात थी, आराध्या की वो पवित्र प्रेम, जिसे वह प्रकट तो नहीं कर सकती थीं कृष्ण कुमार के सामने, परंतु वो उस प्रेम को बहुत दिनों से अनुभव जरूर कर रहे थें।
और उसी प्रेम के कारण....
सच तो यह है कि, न कृष्ण कुमार आराध्या को कभी खोना चाहता थें, और नहीं कभी आराध्या उन्हें खोना चाहती थी।
वो दोनों एक-दूसरे से बहुत स्नेह करतें थें, जो इस संसार के बनावटी प्रेम से कुछ अलग ही था।
एक ऐसी स्नेह, जिसमें से सिर्फ पवित्रता का हीं सुंगध आती हो। वो दोनों के प्यार में कहीं कोई मिलावट नहीं थीं, और नहीं कोई शारीरिक आकर्षण, जिससे वासना की गंदगी बदबू आती हो। दोनों का प्यार शारीरिक न होकर, आत्मीक थी। जिसमें आत्मीयता हीं आत्मीयता भरी हुई थीं।
लेकिन,
इस आत्मीयता भरे प्यार को भी, संसार की गंदगी भरे नजरों से प्रोफेसर नहीं बचा पायें, जो आगे चलकर आराध्या के लिए असहनीय बन गई थीं।
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आराध्या ;
जो कभी सोच भी नहीं पायी होगी की मेरे पवित्र स्नेह को लोग इस घृणित नजरों से देखेंगे की एक दिन हमेशा के लिए यह प्यार मेरे लिए बोझ बन जायेगी।
कॉलेज की कुछ मनचले लड़कियों को आराध्या और कृष्ण कुमार के बीच जो स्नेह चल रही थी न, वह अब अॉखों हीं अॉखों में खटकने लगी थी।
और सिर्फ अॉखों में हीं नहीं खटक रही थी, जबकि आराध्या की पीठ पीछे चर्चा का बाजार भी बहुत गर्म थें - देखो जरा दोनों को।
ऐसी बात नहीं थी कि आराध्या को कुछ भी ज्ञात नहीं थीं की यहॉ मेरे पीठ पीछे क्या चल रही हैं।
वह सब कुछ जानते हूए भी, अंजान बनी बैठी थी, इस इंतजार में की कोई जरा मेरे मुंह पर तो बोलकर देखें... तो मैं उसको बताती हूँ कि मैं हूं तो क्या हूँ।
लेकिन इतनी किसकी मजाल की कोई आराध्या को मुंह पर, जरा सामने आकर बोलें।
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समय के साथ - साथ आराध्या आगे बढ़ती जा रही थी। वो अपनी काम पर ज्यादा ध्यान देती, तथा समय मिलने पर कभी-कभी, कृष्ण कुमार के द्वारा लिखित उपन्यास को चोरी - चोरी पढ़ लिया करती थी।
जब वह कॉलेज आती तो लगभग शांत रहने की कोशिश करती, क्योंकि उसे एक डर सताने लगी थी की पता नहीं कौन क्या समझ ले।
लड़कियों के साथ एक हमेशा विडम्बना भरी बात होती है, और वह यह बात होती है कि लोग उसकी भावना को गलत रूप में लेने लगतें हैं।
क्या किसी को अपनी मन पर नियंत्रण हो सकता है?
यह प्रश्न बार - बार आराध्या स्वयं से करती, और स्वयं ही अपने इस प्रश्न को उत्तर ढूंढने की कोशिश भी करती।
जब कृष्ण कुमार क्लास रूम में प्रवेश करतें तो, एक बार कृष्ण कुमार को कनखियों से देखकर वह अपने-आप को किताबों को काले - काले शब्दों में खपा देने की कोशिश करने लगती। ताकि ध्यान कृष्ण कुमार की ओर न जा सके।
क्योंकि क्लास में बैठे अन्य छात्र - छात्रा का नजर आराध्या और कृष्ण कुमार पर ही लगी रहती थीं।
कृष्ण कुमार भी इन सारे हरकतों को समझ रहे थें, लेकिन वो भी अपनी तरफ से एक खामोशी की चादर ओढ़े रहतें, तथा भरसक प्रयास करते की कोई मेरी भावनाओं को समझ न ले की मेरे ह्रदय में आराध्या के प्रति क्या चल रही है।
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कभी-कभी दोनों एक-दूसरे के अॉखों में झॉक लेतें, और अॉखें मिलतें ही आराध्या एक फिक्की मुस्कान के साथ अपनी पलकें नीचे कर लेती थी।
आराध्या की मुस्कुरुहाट कृष्ण कुमार के शरीर में जान फूंक दिया करती थी, जैसे दोनों की अॉखें, अॉखें चार होने के लिए बेसब्री सें इंतजार कर रही हो।
आराध्या जब कोई कविता या शायरी लिखकर लाती तो कृष्ण कुमार को दिखाने के लिए बेचैन सी रहती, और भरसक कोशिश करती की मैं अपनी कविता को कृष्ण कुमार को दिखा हीं दूं। और कृष्ण कुमार भी उसकी कविता को पढ़ने के बाद खुश होते हुए तारिफ का पूल बांध देतें।
यह अजीब रिश्ता थी दोनों के बीच, जो सिर्फ एक - दूसरे को देखकर और दो शब्द बोलकर ही खुश हो जातें थें।
लेकिन यह रिश्ता को भी किसी के न किसी के नजर लगना हीं था। और वो कोई नहीं वह समाज ही था, जिस समाज में दोनों पले - बढ़े थें, एंव सॉस ले रहें थें।
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एक बार आराध्या बड़े हीं भावुक अंदाज में कृष्ण कुमार से बोली थी, - " सर हम लोगों को यह समाज इस रूप में कभी भी स्वीकार नहीं करेगी... क्योंकि हम दोनों को समाज किसी और रूप में देखती आ रही है, और जिस रूप में देखते आ रही है न, उसी रूप में वो देखना भी पसन्द करेगी...।"
कृष्ण कुमार के लिए आराध्या के द्वारा बोली गई यह अधूरी वाक्य समझतें देर नहीं लगा। वो समझ गये थे की आराध्या बताना क्या चाहती है। वो यह बताना चाह रही थी कि हमें यह समाज प्रेमी-प्रेमिका के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकती, हॉ गुरु - शिष्या के रूप में जरूर स्वीकार कर सकती है, क्योंकि हमें इसी रूप में हमेशा से देखती आ रही है।
लेकिन यह शब्द सिर्फ उपर से समझाने के लिए था, जो आराध्या बोल रही थीं। कभी वो अपने ह्रदय को यह शब्द बोलकर समझायी होती तो समझ आता।
क्योंकि जब एक इंसान के ह्रदय में कोई एकबार स्थान बना लेता है न, जिस रूप में तब उस रूप को मिटाकर, दूसरी रूप में उस इंसान को अपने ह्रदय में स्थान देना बड़ा ही मुश्किल काम होता है।
क्रमशः जारी..
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