रामकिशन जी बरसात में भीगते, कंपकंपाते हुए घर पहुँचे, रूपा ने उनके हाथों से सामान लिया और लौंग-तुलसी वाली चाय चूल्हे पर चढ़ा दी । रामकिशन जी ने कपड़े बदल लिए थे और गर्म चाय भी पी ली थी, परन्तु आज बरसात की ठंडी बूँदों और हवा ने उनको थरथरा ही दिया था । रात्रि-भोजन पश्चात् रामकिशन जी बिस्तर पर लेट गये थे, इतने में रूपा भी गर्म सरसों के तेल की कटोरी लिए कमरे में पहुँची और पति रामकिशन जी के पैरों के तलवों पर मालिश करने लगी । रामकिशन जी को अब राहत पहुँच रही थी, उनकी कंपकंपाहट भी कम हो चली थी ।
"रूपा ! तुम्हारे तेल की मालिश ने गर्माहट पहुँचा दी वरना लग रहा था कि ठंड से बुखार ही आ जाएगा, कहां से सीखा तुमने ये नुस्खा?" उन्होंने पत्नी रूपा से बड़ी सरलता से पूछा और रूपा ने भी उसी सादगी से जवाब दिया "अपनी माँ से, जब हम बारिश में भीग जाते थे तो माँ भी ऐसे लौंग-तुलसी की चाय और सरसों के गर्म तेल से पैरों तले मालिश करती थी । सावन का महिना आते ही , मैं तो पेड़ों पर पड़े झूलों पर झूलती रहती थी, बारिश में भीगना बहुत पसंद था मुझे, माँ के ये घरेलू नुस्खे हम चारों भाई-बहनों को बीमार नहीं होने देते थे" रूपा माँ और मायके की यादों में खो गई थी, रामकिशन जी राहत मिलते ही सो चुके थे ।
शांत स्वभाव के रामकिशन जी घर के बड़े बेटे थे। उनके पिताजी ने पुश्तों से चली आ रही अपनी साड़ियों की दुकान में, उन्हें अपने साथ काम पर लगा लिया था । रामकिशन जी पढना चाहते थे परन्तु पिताजी के गुस्से के आगे उनकी एक न चली । छोटा भाई सरकारी नौकरी में चयनित हो गया था । रामकिशन जी के बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया था और बिटिया अभी ग्यारहवीं कक्षा में थी ।
पिताजी ने अब दुकान जाना बहुत कम कर दिया था ! डायबिटीज़ और उक्त-रक्तचाप जैसी बिमारियों से ग्रस्त पिताजी का रुआब तो अब भी वैसा ही बकरार था, पिताजी चाहते थे कि पोता भी दुकान सम्भाले, इतना पढ़ने की क्या जरूरत है परन्तु रामकिशन जी ने उन्हें कैसे-तैसे समझा लिया था कि इंजीनियरिंग पूरी होती ही उसे दुकान का काम सिखा दूंगा । रामकिशन जी माँ से भी अपने मन की बात न कह पाते थे क्यूंकि माँ भी स्वभाव से सख्त थीं और छोटे बेटे के प्रति उनका लगाव कुछ अधिक ही था ,रही बात पत्नी की, तो वो क्या जाने दुकानदारी और पति के संघर्ष, बस ये ही सोचकर वह रूपा से अपने मन की कोई बात नहीं कहते थे ।
रामकिशन जी के लिए अकेले दुकान सम्भालना मुश्किल हो रहा था, यह बात वह किसी से नहीं कह पाते थे क्यूंकि पिताजी तो पोते को दुकान पर ले जाने की जिद्द करने लगेंगे और रामकिशन जी अपने बेटे को खूब पढ़ाना-लिखाना चाहते थे । काम का अत्यधिक बोझ और बरसात का पानी उनके जोश को ठंडा करने लगा था ।
पति की थकान को रूपा भली-भांति समझ रही थी ।
"सुनिए जी, राजू की नौकरी लगती है और छूट जाती है, दो महीने पहले ही तो उसकी शादी हुई है , खर्चा भी बढ़ रहा है, वह कंप्यूटर भी जानता है, यदि दुकान में उसके लायक कोई काम हो तो अपने साथ रख लीजिए..आपका भी कुछ बोझ कम होगा, माँ-बाबा की चिंता भी दूर हो जाएगी" उसने बातों ही बातों में अपने छोटे भाई राजू को दुकान पर रखने की बात कही । रामकिशन जी के लिए इस से सुखद बात कोई हो ही नहीं सकती थी, उन्होंने तुरंत राजू को फोन किया और अगले दिन दुकान पर आने को कहा ।
हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, ठंडी हवा और स्कूटर पर रामकिशन जी, ख़ुशी से गुनगुनाते जा रहे थे राजू दुकान के बाहर ही इंतज़ार करता हुआ मिला ।
"चरणस्पर्श जीजा जी" राजू ने रामकिशन जी के चरण स्पर्श किये और उनके हाथों से सामान ले लिया । रामकिशन जी ने राजू को दुकान के नियम और अन्य काम अच्छे से समझा दिए थे कि सुबह 9.30 बजे दुकान खुल जानी चाहिए, साफ़-सफाई करवाने के बाद कान्हा जी को धूप-अगरबत्ती करनी होती है, रात 9 बजे ही दुकान बढ़ायी जायेगी (अर्थात दुकान बंद करने का समय) और सबसे अहम बात कि दुकान पर काम करने वाले दुकान की कोई भी साड़ी नहीं ले सकते या खरीद सकते क्यूंकि उनके यहाँ ये अपशकुन माना जाता है, ये मान्यता थी कि ऐसा करने से भारी घाटा होता है , ये नियम बरसों से चले आ रहे थे, जिसे रामकिशन जी भी बड़ी शिद्दत से निभा रहे थे । सारा हिसाब-किताब अब राजू कंप्यूटर में फीड करने लगा था । राजू को फ़िल्मी गाने सुनने का बहुत शौक था, धीमी-धीमी आवाज़ में कंप्यूटर से गानों की आवाज़ आती रहती, राजू बहुत मेहनती और मस्त-मौला लड़का था, वह जीजा जी को किसी शिकायत का मौका नहीं देता था ।
"मेरी जान, चाहे कितनी भी देर हो जाए, आज तो समोसे जरुर लाऊंगा और सुनो, रविवार को फिल्म देखने चलेंगे..पक्का वाला वादा" राजू फोन पर बड़े प्यार से बातें कर रहा था । रामकिशन जी के कानों में उसकी बातें पड़ीं तो वह मुस्कुराते हुए बोले "क्यूँ बे राजू, अपने जीजा जी के सामने अपनी पत्नी से प्रेमभरी बातें करते हुये लज्जा न आती तुझको" ।
"जीजा जी, कैसी लज्जा..अपनी पत्नी से ही तो प्यार जता रहा हूँ । जरा सुनिए, ये गाना भी तो कह रहा है कि 'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल'" कहते हुये राजू अपने काम में व्यस्त हो गया और रामकिशन जी बड़े ध्यान से गाना सुनने लगे ।
बाहर जोरों की बरसात हो रही थी, लगता नहीं था कि जल्दी थमेगी , रामकिशन जी गाने को सुनते हुए बीस साल पीछे चले गए, उनकी और रूपा की सगाई हुई थी, रूपा के रूप पर दिल हार बैठे थे वो, गोल-मटोल श्वेत वर्ण चेहरा, बड़ी कजरारी आँखें, गुलाबी रंग बिखेरते होंठ और दांत की बनावट ऐसी मानों सफ़ेद मोतियों की माला, इतनी सुंदर कि अप्सराओं को भी जलन हो जाये । बस रूपा के ही ख्यालों में खोये रहते थे वो और यह गाना सुनते हुए उनका मन ये ख्वाब सजाता था कि शादी के बाद यूँ ही छाता लिए वह ये गाना गुनगुनायेंगे और रूपा शर्माते हुये यूँ ही कभी नजरें झुकायेगी तो कभी उठायेगी, उनके बदन में एक प्रेम की लहर दौड़ जाती ।
शादी के समय , रूपा मात्र अठारह बरस की थी और वह चौबीस बरस के , इस उम्र में अलहड़पन , दीवानापन और मिजाज का आशिक होना तो लाज़मी ही था । शादी होते ही रामकिशन जी का मन कहीं न लगता, वह रूपा के ही इर्द-गिर्द मंडराते रहते । रूपा घूँघट में घर के काम में व्यस्त होती तो वह चुपके से उसका घूँघट हटा देते रूपा की हर फरमाईश पूरी करना चाहते थे वो । प्रेम बरसाता सावन भी आ गया था , बाहर तेज़ बरसात हो रही थी, रामकिशन जी के ख्वाब पूरे होने का समय आ चुका था , बरसात में सड़क पर टहलते हुये, हाथों में छाता लिए वह गाना गुनगुनायेंगे और रूपा शर्माएगी, रूपा के मनपसन्द समोसे भी खिलाऊंगा । रामकिशन जी छाता लिए रूपा के साथ बाहर जाने ही वाले थे कि आसमान में कड़कती बिजली की गरजना से भी तेज़ तो पिताजी गरज पड़े और बरसात की झड़ी से भी जोरदार गालियों की झड़ी उन पर बरसा दी "पगला गये हो का इस छोकरी के चक्कर में, शर्म-लाज तो कुछ बची ही नहीं अब तुम दोनों में, इस बेशर्मी का असर छोटे भाई पर क्या पड़ेगा तनिक सोचते भी हो तुम , कल सुबह ही चुपचाप दुकान पर चलो और अपना काम सम्भालो, ये देवदास सा बनकर घूमने से जिन्दगी नहीं चलेगी तुम्हारी" उस दिन पिताजी ने गुस्से में न जाने क्या-क्या बोला , रामकिशन जी ने एक आस भरी निगाहों से माँ की तरफ देखा तो उन्होंने भी कह दिया था कि बहु के आगे-पीछे यूँ घूमोगे तो सिर पर बैठ कर तांडव करेगी , उस दिन रामकिशन जी का सपना ही नहीं टूटा अपितु मोम जैसा दिल भी पत्थर का सा हो गया था, जिसमें न अब कोई उमंग बची थी न कोई हरियाला सावन । देर रात तक अकेले ही बरसात के साथ उनके आँसू भी बरसते रहे ।
उस दिन से ही वह अपने काम में व्यस्त हो गये, सुबह जल्दी निकलना और देर रात घर आना, छोटे भाई ने दुकान में आने से साफ मना कर दिया था क्यूंकि उसको सरकारी नौकरी करनी थी, ब्याह भी उसने अपनी पसंद से किया था, पर मजाल है, जो किसी ने उसको कुछ कहा हो ।
रूपा दो बच्चों की माँ बन गई थी, गौर से उसके रूप को कभी निहारा ही नहीं था अब रामकिशन जी ने , बस जब उजाले में वो सामने आती तो चेहरे पर झुर्रियां और सांवला दबा रंग नजर आता । कजरारी आँखों के नीचे काले घेरे और शुष्क हुए होंठ दिखाई देते, दोनों पति-पत्नी अपने काम में लगे रहते, बिना किसी गिले-शिकवे के । "जीजा जी, जीजा जी" राजू की आवाज़ से रामकिशनजी भूतकाल से वर्तमान की ओर लौटे ।
"क्या हुआ, क्यूँ चिल्ला रहा है?" खुद को सम्भालते हुये रामकिशन जी बोले ।
"जीजा जी, वो जो हरी नगजड़ी साड़ी है ना, क्या मैं ले लूँ ? अपनी पत्नी के लिए" दुकान के नियम पता होते हुये भी राजू ने ये पूछने का जोखिम उठा ही लिया था ।
"क्या बकवास कर रहा है, जानता नहीं कि दुकान पर काम करने वाला दुकान का कोई सामन..न ले सकता है और न ही खरीद सकता है, घाटा करवाना चाहता है क्या?"
"नहीं जीजा जी, ये सब बेकार की बातें हैं, पुराने लोगों ने ये नियम सिर्फ इसलिए बनाया होगा ताकि सब अपनी पत्नियों को ये साड़ियाँ भेंट में न देते रहें और पत्नियाँ भी साड़ी की मांग न करें तो ऐसी मनगढ़ंत मान्यता बना दी गयी होगी" ।
"नहीं, मैं नहीं मानता तेरी बातें, ये साड़ी नहीं मिलेगी तुझे..बस" रामकिशन जी ने अपना फरमान सुना दिया ।
"लेने दीजिये न जीजा जी, शादी का हमारा पहला सावन है, मैं अपनी पत्नी को ये नगजड़ी हरी साड़ी और चूड़ियाँ भेंट करना चाहता हूँ, पहला सावन तो जिन्दगी की अनमोल यादों का किस्सा होता है और मैं इस किस्से को मिटाना नहीं चाहता" राजू की दीवानगी रामकिशन को अपने प्रेम की याद दिला रही थी ।
थोड़ी ही देर में जो राजू ने कहा, उसकी कल्पना भी नहीं की थी रामकिशन जी ने "जीजा जी, मैं ग्राहक बनकर यह साड़ी खरीदने आया हूँ, मैं अब आपकी दुकान का कर्मचारी नहीं रहा, मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला ले लिया है, अब तो आप ये साड़ी मुझे बेचेंगे ना" ।
"हाँ राजू, ये साड़ी तू ही खरीदेगा, पर..पर कोई ग्राहक बनकर नहीं बल्कि इस दुकान के कर्मचारी की ही हैसियत से..समझा, अगर मंजूर है तो ठीक वरना किसी दूसरी दुकान से खरीद ले अपने पहले सावन का तोहफा" आँखों में अश्रु लिए राजू उनके चरणों में झुकने को हुआ तो उन्होंने ने उसे अपने गले से लगा लिया "राजू, आज तूने मुझे प्रेम का बहुत बड़ा पाठ पढाया है, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है" ।
रामकिशन जी घर की ओर निकल पड़े थे, हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी होने लगी थी, घर तक पहुंचते-पहुँचते बरसात तेज़ हो गयी थी । रोज़ की तरह आज भी दरवाज़ा रूपा ने ही खोला, रामकिशन जी ने उसे छाता लाने को कहा, हैरान होते हुए रूपा भी फटाफट छाता ले आई । रामकिशन जी , रूपा को लेकर सड़क पर निकल गए ।
"सुनिए जी, माँ-पिताजी बहुत डांटेंग" रूपा ने सहमते हुये कहा तो वह बोले "आधे से ज्यादा जीवन तो हम उनके अनुसार जी ही चुके हैं, पति-पत्नी अगर एक दूसरे के साथ समय व्यतीत कर रहे हैं तो इस से किसी का निरादर नहीं होता"।
"पर..बरसात में भीगने से मुझे ठण्ड चढ़ जाती है" रूपा ने अपनी बाँहों में सिमटते हुए कहा तो वह प्रेम से उसके सिर को सहलाते हुए बोले "तो मैं, तुम्हारे पैरों पर सरसों के गर्म तेल की मालिश कर दूंगा, जैसे तुम्हारी माँ किया करती थी" रूपा तो उनको एकटक निहारती ही रह गई । छाते को पकड़े वो गुनगुना रहे थे 'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल' और बरसों बाद आज रूपा फिर एक बार शरमा रही थी । जेब से समोसे निकालकर, रामकिशन जी अपनी प्रियतमा को अपने हाथों से खिलाते हुए, शादी का पहला सावन मना रहे थे । आज भी बरसात के साथ उनके आँसू बरस रहे थे, पर खुशी के आँसू ।
धन्यवाद ।
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