शहर की कच्ची गली में
इक छोटा सा घर था मेरा
घर का वो मेहमान कमरा
जिसको जी भर सजाया था
दीवार संग लकड़ी की पलंग
गुलदान सजी टेबल लगाया था
चारों ओर अपनों की ही थी भीड़
जहाँ पहली बार मिले थे हम तुम
सबकी नजरों ने चुना था मुझको
पर तेरी हाँ से इक हुए थे हम तुम
बंधन में बंधने वाले थे फिर भी
जाने क्यूँ जग से डरते थे हम तुम
कभी ढाबे तो कभी बस अड्डे पर
सबसे छुप-छुप के मिलते थे हम तुम
मायके से ले विदा तुम संग चल दी
बने थे अब जीवन के साथी हम तुम
गूँजी किलकारियाँ..बढ़ी थी जिम्मेदारियाँ
इस दूरी में भी इक-दूजे संग थे हम तुम
चेहरा भी कुछ कुछ बदला और
कुछ कुछ बदलीं चाहें भी
कुछ कुछ सबकुछ बदल गया
पर कभी न बदले वो थे हम तुम
संग अब भी गाते, बतियाते हैं
कभी थोडा झगड़ भी जाते हैं
बढती उम्र से नही घबराते हम तुम
तुम हो प्रीतम मैं प्रियतमा
दोनों में बसती इक आत्मा
दुआ करूं इतनी ऐ परमात्मा
जाएँ इक दिन संग संग हम तुम
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By Sunita Pawar
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