मैं बिल्कुल माँ जैसी
माँ की चुनरी ओढ़ा करती थी
शीशे में देखा करती थी
फिर खुद से ही पूछा करती थी
लगती हूँ न मैं बिल्कुल माँ जैसी
माथे की लाल बड़ी सी बिंदी
दिल को भाया करती थी
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
मैं भी लगाया करती थी
देख-देख छवि अपनी
कितना मुस्काया करती थी
सवाल वो ही फिर से दोहराया करती थी
लगती हूँ न मैं बिल्कुल माँ जैसी
दो चोटियाँ छोड़ इक परांदा लटकाया था
बाहों को अपनी कांच की चूड़ियों से सजाया था
थोडा सा पाउडर मल चेहरा अपना चमकाया था
लाल होठों को देख जब माँ ने धमकाया था
मैंने रोते हुये उन्हें बताया था
लगती हूँ न मैं बिल्कुल माँ जैसी
जैसे माँ बालों को सहलाती थी
लाल सा बड़ा रिबन लगाती थी
जुओं से भी मुझे डराती थी
आँखों के काजल से काला टीका लगाती थी
हर बुरी नजर से मुझको बचाती थी
पापा की लाई गुडिया के संग
मैं ऐसे ही वक्त बिताती थी
दिनभर उससे खेल-खेल में बतियाती थी
लगती हूँ न मैं बिलकुल माँ जैसी
माँ तू तो दाल-रोटी बनाती थी
मैं तो कितनी रेसेपी सीख आती थी
फिर तुझे ही पकाना सिखाती थी
बन तेरी टीचर कितना इतराती थी
घर में सबकी वाह-वाही पाती थी
पर तेरे हाथों का खाकर ही भूख मिटाती थी
तेरे ही मुंह से सुनना चाहती थी
लगती हूँ न मैं बिलकुल माँ जैसी
समय एक दिशा में बहता नहीं
मायके में सदा कोई रहता नहीं
देख मेरे मुखड़े को अब
कोई काला टीका लगाता नहीं
मेरे तरह-तरह के पकवानों के
कोई अब गुण गाता नहीं
वक्त का कोई भी इम्तिहान
अब मुझे डगमगाता नहीं
बीमार हूँ, दिल किसी से कहता नहीं
बच्चों के सिवा मुझे कुछ भाता नहीं
तू मेरा हौंसला, मेरी राज़दार है
छोड़ कर मुझको कभी जाना नहीं
मुझे तुझ बिन जीना आता नहीं
देख ये दुनिया पूरी क्या कहती है
तू लगती है बिलकुल अपनी माँ जैसी
सुनीता पवार
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