बुढ़ापे का इश्क़।

बुढ़ापे का इश्क़, वो भी अपनी बेटी की उम्र की लड़की के साथ। शायद ही इससे बड़ी मूर्खता कोई होगी। मुझे भी ये पता चला। खैर, कभी-कभी प्रकृति भी जीवन का पाठ कठोरता से सिखाती है। ये वाक़या भी कुछ ऐसा ही है।

Originally published in hi
Reactions 0
303
Manoj Kumar Srivastava
Manoj Kumar Srivastava 15 Jun, 2022 | 1 min read

उम्र का चालीसा पार कर चुका था। पुरुषों के लिए ये अजीब सी उम्र होती है। दिल जवानी की डोर छोड़ना नहीं चाहता, शरीर से डोर का भार संभाला नहीं जाता। मैं उम्र के इसी दोराहे पर था। उन दिनों मैं अपनी बेटी को उसके कॉलेज स्कूटर से छोड़ने जाया करता था। वो प्रथम वर्ष की स्टूडेंट थी। स्कूल छोड़े कुछ महीने ही हुए थे। इसी बहाने सुबह सवेरे कुछ ताज़ी हवा का सेवन भी हो जाता था। कॉलेज पास ही था।

'वो' रास्ते में कॉलेज के बस-स्टॉप पर दिखती थी। बस का वेट करते हुए। हम लोग रोज़ एक दूसरे के सामने से गुज़रते थे। आँखे मिलती थी। 'वो' मुस्करा देती थी। मैं भी मुस्करा देता था। काफ़ी खूबसूरत थी 'वो'। टाइट जीन्स और टॉप में लगभग उसका शरीर फँसा रहता था। उसके जिस्म की खूबसूरती का, फुसफुसा कर अनुमान देता रहता था। बाकी आपकी कल्पना। मैं तो लेखक था। कल्पनाशीलता की कोई कमी ना थी। आँखों से ओझल होने तक, मेरी कल्पना पहाड़ी नदी की तरह हर रास्ते को टटोल लेना चाहती थी। अपनी कल्पना में कितनी बार मैं उसे निर्वस्त्र कर चुका था। एक एक करके। धीरे धीरे। कल्पना का ज्वार जब आता है तो, बाढ़ के तांडव को भी पीछे छोड़ जाता है। क्या मैने उसकी उम्र का ज़िक्र किया अभी तक? यही कोई 18-19 वर्ष। मैं नबोकोव के प्रसिद्ध उपन्यास "लोलिता" के मुख्य पात्र HH की तरह हो गया था। उसी की तरह मन करता कह दूँ, "लोलिता, मेरे जीवन की रोशनी, मेरी कामाग्नि।" एक दिन उसे मैं अपने घर में देख कर दंग रह गया।

"पापा, ये मेरी फ्रेंड है, रीता", मेरी बेटी ने मुझसे लिपटते हुए कहा।

अच्छा। तो ये उसकी दोस्त है। पर ये कुछ 'स्पेशल' थी।

"हेलो, सिंह साहब। मैं आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई। यूँ तो हम लोग रोज़ ही रास्ते में मिलते हैं, पर आज आपसे मिलने का अवसर मिला है", रीता ने मुस्कराते हुए कहा।

वो राधा (मेरी बेटी) के साथ बहुत देर तक उसके कमरे में बैठी रही। हालांकि मैं अपने कमरे में बैठा था, पर मेरे कान उसी तरफ लगे हुए थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे हो क्या गया था। पूरा दिन उसके बारे में सोचते हुए बीता, रात बिताना तो और भी कष्टप्रद था।

अगला दिन आया। राधा को छोड़ कर मैं थोड़ा ही आगे बढ़ा था, तभी...

"हेलो, सिंह साहब।"

मैंने स्कूटर रोक कर पीछे मुड़ कर देखा। रीता खड़ी थी।

"मैं आपके लिए एक बुक लायी हूँ। इसका पहला पेज ज़रूर पढियेगा", ऐसा कह कर किताब उसने मेरे हाथ में दे दी। उसकी उँगलियाँ, मेरी उंगलियों से छू गयी। जानबूझ कर था क्या?

घर पहुँच कर सीधे मैं अपने कमरे में गया। थरथराते हाँथों से मैंने पहले पन्ने को खोला। ये क्या!! एक चिट्ठी?

"हेलो सिंह साहब। आप बस-स्टॉप पर गुज़रते वक़्त जिस तरह से मुझे घूरते हैं, उससे मुझे कुछ होने लगता है। कुछ अजीब सा महसूस होता है। लगता है, मैं किसी और दुनिया में जा चुकी हूँ। मैं आपको मन ही मन चाहने लगी हूँ। मुझे अपने जीवन में जगह दीजिये। मैं सिर्फ और सिर्फ आपकी बनी रहना चाहती हूँ। लव यू,

आपकी और सिर्फ आपकी,

रीता"

पत्र तो लगभग मेरे हाथों से छूट ही गया। एक शरारती रोमांच से मेरा शरीर भर गया। मैं किसी दूसरे लोक में पहुँच चुका था। काम और कुटिल कल्पना से भरा लोक। पूरी रात मैंने रीता के साथ उसी कल्पना लोक में बिताई!

अगले दिन रीता वहीं कॉलेज गेट पर ही थी। मेरा वेट कर रही थी। मुझे देख, भाग कर आई। मैं भी आतुरता से उसे देख रहा था।

"सिंह साहब, आज मैंने कॉलेज में बंक मार दिया है। चलिए कहीं चलते है। पूरा दिन साथ बिताते हैं। आप और मैं।"

मैं तो दंग रह गया। "क्या! कॉलेज में बंक मार दिया! आखिर क्यों?"

"में आपके साथ समय बिताना चाहती हूँ। मैं आपका साथ चाहती हूँ। मैंने राधा से फ्रेंडशिप इसी लिए की कि मैं आपके नज़दीक आ सकूँ। मैं पूरी ज़िंदगी आपके साथ रहना चाहती हूँ, आपकी बन कर", व्यग्रता और अधीरता उसकी बातों से साफ झलक रही थी।

मैं तो जैसे, पाताल लोक में जा गिरा। पूरी ज़िंदगी आपके साथ रहना चाहती हूँ, आपकी बन कर!! पगला गयी है क्या! अगर सेक्स वेक्स की बात करती तो मैं तुरंत हाँ कर देता। मान जाता। यहाँ तक कि जगह भी तय कर देता। दोनों साथ साथ आनंद उठाते। लेकिन ज़िन्दगी बिताना। एक आध रात की बात तो ठीक है पर...। नहीं नहीं। असंभव। आखिर मैं एक शादी शुदा आदमी हूँ। मेरी एक पत्नी और जवान बेटी है। मेरा समाज में एक सम्मान है। मैं ऐसा कैसे कर सकता था। लगता है ये लड़की कुछ लूज़ करैक्टर की है। जानने लायक नहीं है। ऐसी लड़कियों से दूर रहना ही अच्छा है।

मुझे चुप देख कर वो जैसे असमंजस में पड़ गयी।

"सिंह साहब, ऐसा लगता है जैसे आप कुछ परेशानी में पड़ गए हैं। ठीक है, अगर हम दोनों एक साथ ज़िन्दगी नहीं बिता सकते तो कम से कम दोस्त तो बन ही सकते हैं। मैं पूरी दुनिया को बता देना चाहती हूँ कि हम दोनों अच्छे दोस्त है", उसने मेरा हाथ हौले से पकड़ते हुए कहा।

" नहीं, तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगी", मैंने उसका हाथ झटकते हुए कहा। "मैं तुम से बाद में मिलता हूँ। अभी मुझे ज़रूरी काम है।"

मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और वहाँ से निकल भागा।

पूरा दिन ऊहापोह में बीता। अगर उसने किसी से कुछ कह दिया तो? मेरी तो बेटी ही उसकी बेस्ट फ्रेंड है। अगर वो उससे बता दे तो? मैं तो संकट में पड़ जाऊँगा। घोर संकट में। देर रात में घर लौटा। असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। आशंका से घिरा हुआ चुपचाप अपने कमरे में चला गया। खैर, ऐसा कुछ हुआ नहीं। वही पत्नी के सवाल, देर क्यों हुई वगैरह वगैरह। बस। जान बची!

सवेरे उठा तो राधा मेरे पास आई।

"पापा, रीता ने ये किताब मुझे दी है। कहा है आपको ये दे दूं।"

"किताब! कौन सी किताब? कहाँ?" लगता था पृथ्वी फट जाएगी और मैं उसमे समा जाऊँगा। मैं किताब लिए अपने कमरे में घुस गया। पूरा शरीर अनहोनी की आशंका से काँप रहा था। काँपते हाथों से मैंने किताब को खोला। अंदर एक पत्र था। मैंने पढ़ना शुरू किया।

"प्रिय अंकल,

मुझे दुख है कि आप मेरे वजह से इतना परेशान हुए। अंकल मैं आपकी बेटी राधा की फ्रेंड हूँ। आपकी बेटी की उम्र की हूँ। आपकी बेटी की तरह हूँ। मैं आपको देख कर एक बेटी की तरह मुस्कराती थी। लेकिन आप अंकल! आप इस तरह मुझे घूरते थे कि मुझे खुद से घृणा होने लगी थी। क्या आप राधा को भी इन्ही नज़रों से देख सकते हैं। नहीं। क्योंकि वो आपकी बेटी है। अंकल मैं भी किसी की बेटी हूँ। सिर्फ इस लिए की मैं आपकी बेटी नहीं हूँ, आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं। क्या मैं एक खिलौना हूँ? क्या मैं एक देह मात्र हूँ? अंकल, क्या मेरे अंदर भावनाएं नहीं हैं? क्या मुझे एक इंसान की तरह सम्मान पाने का हक़ नहीं है? क्या लड़की होना इस समाज में गुनाह है? आपको कैसा लगेगा अगर कोई राधा के प्रति ऐसी भावनाएं रखे जैसी आप मेरे प्रति रखते हैं? अंकल, हम लोग भी अजीब हैं। हम लोग अपना घर तो साफ रखते हैं, पर कूड़ा सड़क पर फेंक देते हैं। ये भूल जाते हैं कि हम भी इसी सड़क पे चलते हैं। हो सकता है, किसी का कूड़ा हम पर किसी दिन गिर जाए।

में आपके गलत बिहेवियर की तरफ इशारा करना चाहती थी। आपको बताना चाहती थी कि आप गलत हैं।

आपकी बेटी की फ्रेंड और आपकी बेटी की तरह,

रीता"

पत्र अचानक बहुत भारी हो गया था। उसको पकड़ पाना मुश्किल हो रहा था। पूरा शरीर ऊर्जा विहीन और अशक्त हो गया था। गला रुँध गया। शब्द आँसुओं से भीग कर धुँधले हो गए थे। शर्मिंदगी। सब कुछ आँखों के रास्ते बह चला। कितनी देर मैं वहाँ खड़ा रहा, मुझे खुद भी याद नहीं। अपनी बेटी के सामने मैं खुद को कितना छोटा महसूस कर रहा था। मैं खुद अपनी नज़रों में गिर गया था। सिर्फ में जानता था कि वो दिन मेरा कैसा और कितनी पीड़ा में बीता।

अगले दिन मैं अपने आप को तरो-ताज़ा और साफ सुथरा महसूस कर रहा था। राधा को मैं कॉलेज छोड़ने गया। कॉलेज गेट पर रीता से मिलना हुआ।

"हेलो सिंह साहब", उसने शरारत से कहा।

"नहीं, हेलो सिंह अंकल बोलो", कह कर मैं हँस पड़ा।

तीनो हँसने लगे। मैंने दोनों बेटियों को गले लगा लिया। हमारी हँसी और आँसुओं के बीच वो बूढ़ा इश्कबाज दूर दूर तक कहीं नज़र नही आ रहा था।




















0 likes

Published By

Manoj Kumar Srivastava

manojkumarsrivastava

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.