एक अदद खामोशी।

एक खामोशी, एक चीख़, बेज़ुबान अल्फ़ाज़।

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Manoj Kumar Srivastava
Manoj Kumar Srivastava 08 Jul, 2022 | 1 min read

हर खामोशी कि इक आवाज़ होती है,

शून्य से उभरती हुई इक संवाद होती है,

ज़रूरी नहीं कि हर बात पर खून खौले,

ठंडे खून की भी इक फ़रियाद होती है।


ऐसा नहीं कि ये जिस्मानी होती है,

ये तो हाले-दिल रूहानी होती है,

ज़रूरी नहीं कि हाथ उठा कर ही कहें,

कटे हाथ से भी इंक़लाब होती है।


आवाज़ छीन लेने की जो बात होती है,

और बंद कमरे की नीरव रात होती है,

पिंजड़े में बंद करके डराता है क्या,

ये वो ज़ुर्रत है जो आज़ाद होती है।


कौन कहता है कि रोशनी सूरज से होती है,

चाँद-सितारों से भी आस होती है,

ये खामोशी सिर्फ चुप्पी नहीं होती,

ये खामोशी हर चीख़ का आगाज़ होती है।













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