सच ही तो है पतंग सी हैं जिंदगी।
एक डोर से ही बंधी सी हैं ज़िंदगी।।
एक दिन यह डोर कट जानी है,पतंग का चाल बिगड़ जानी हैं।
हवा के झोंके कब बन्द हो जाये,जीवन की साँसे रुक जानी है।।
चरखी रुप परिवार में सुलझी रहती हैं ज़िंदगी।।
कच्चे -पक्के रिश्तों में उलझी रहती हैं ज़िंदगी।।
ऊंचाइयों पर पहुँचकर पतंग बड़ा इतराती है।
थोड़ी सी ढील से नीचे गिरती नजर आती हैं,
बस ज़िंदगी की सांस अपनों में अटकी हैं,
लेकिन आज के समय मे अपनों में गाँठे पड़ी हैं।।
गाँठ खुले बिना जिंदगी की पतंग कैसे आगे बढ़ पाएगी।।
थोड़ा तुम आगे बढ़ो थोड़ा हम बढ़े वरना बीच रास्ते मे ही पतंग हिलौरे खाएगी।।
बस ज़िंदगी रूपी पतंग के धागे पक्के रखिये।
पतंग सी ज़िंदगी का लुत्फ उठाते रहिये।।
ममता गुप्ता✍️
अलवर राजस्थान
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