"माँ, आज मालकिन के यहाँ कोई आ रहा है क्या?" माँ को नई साड़ी लपेटते देख ख़ुशी ने माँ से पूछा।
"मालकिन की बहु के पीहर से आ रहे हैं।" ख़ुशी को भी सुंदर सी फ्रॉक पहनाते हुए माँ ने जवाब दिया।
"भाभी के पीहर से .. फिर तो वे मिठाई भी लायेंगे!" ख़ुशी की आँखों में चमक आ गई।
"तुम्हें तो सारा दिन मिठाई सूझती रहती है।" माँ ने उसकी पीठ पर प्यार की थपकी देते हुए कहा।
"माँ, सिर्फ वही..भाभी की लाई हुई स्वादिष्ट वाली.. जो मालकिन ने अपने बेटे की शादी में हमें दी थी।" खुशी ऐसे चटकारे लेने लगी मानो कुछ अंश उस मिठाई का अभी भी उसके मुँह में हो।
"उसके बाद अभी जो कुछ दिन पहले उन्होंने दी थी वो तो अभी तक घर में बची हुई है।" उसने कसैला सा मुहँ बनाया।
"अपनी जीभ को इतना चतोरा मत बनाओ।" माँ ने डपट लगाई।
अब खामोश रहकर खुशी,अपनी माँ का पल्लू पकड़े माँ के पीछे-पीछे चल दी।
"माँ, सावन महीना है न यह?" जिज्ञासावश ख़ुशी की गोल-गोल आँखे बड़ी हो रही थी।
"हाँ, आज सावन की हरियाली तीज है।”ख़ुशी की उत्सुकता देख माँ मुस्करा दी।
“बड़े घरों में खूब मिठाई आती है न?”
“कितने प्रश्न पूछती हो ? अभी जल्दी चलो, देर हो गई तो खामखाह में मालकिन डांटेगी।"
ख़ुशी मिठाई के स्वाद को याद कर, तेजी से अपनी चाल, माँ की चाल संग मिलाने की कोशिश करने लगी।
"अरे, आज इसको क्यूँ ले आई हो? यह तुम्हें काम करने भी देगी क्या ?"
"दीदी, आज इसकी छुट्टी थी तो अकेले कहाँ ..."
"खैर छोड़ , बस अब जल्दी कर ...मेहमान आते ही होंगें।"
उमा ने अपनी बेटी को, छोटा सा स्टूल देकर उस कोने में यहाँ से वह उस पर नज़र रख सकती थी, बिठा दिया और किचन में चली गई।
मेहमानों के आने की आहट सुन ख़ुशी ने अपने स्टूल को चुपके से थोड़ा उस ओर खिसका लिया यहाँ से वह मेहमानों को अन्दर आते हुए सहजता से देख पा रही थी।
"एक, दो, तीं.....पाँच, छह डिब्बे " छोटी छोटी उँगलियों पर हौले से गिनती हुई ख़ुशी मिठाई के डिब्बों को मेहमानों के हाथों में देख मन ही मन खिल रही थी।
डिब्बों को लाकर किचन के बाहर रख दिया गया। उनसे आने वाली महक ने ख़ुशी के स्टूल को धीरे-धीरे अपनी ओर खींच लिया था। इस दौरान ज्यूँ ही उसकी नज़रे माँ से मिलती वह स्टूल से चिपक जाती और माँ को देख हौले से मुस्करा देती।
जब तक सारा कार्यक्रम चलता रहा, वह एक गार्ड की भांति मिठाई के डिब्बों की रखवाली करती रही। चार महीने पहले खाई बिल्कुल ऐसी ही मिठाई का स्वाद उसकी जिव्हा पर ऐसा चढ़ गया था कि आज मालकिन के घर पर बने तरह-तरह के पकवानों की महक भी उसे लुभा नहीं पा रही थी।
"अच्छा दीदी ...मैं चलूँ? " माँ की आवाज से ख़ुशी का ध्यान डिब्बों से हटा। चहकते हुए वह स्टूल से उठी और गेट पर खड़ी माँ के खाली हाथ देख परेशां हो गई।
"अरे उमा ...त्योहार वाले दिन खाली नहीं जाते। बहु, जा किचन में से उमा के लिए मिठाई ला दे।" उमा की ओर मुखातिब होते हुए मालकिन ने अपनी बहू को आवाज़ लगाई।
"अच्छा रुक, मैं ही लेकर आती हूँ।" मालकिन उठ कर अपनी बहु के पीछे - पीछे किचन में चली गई।
"बहु, यह ताज़ी है , कुछ तो रिश्तेदारी में बंट जायेगी और कुछ घर में खाई जायेगी। ये ले यह डिब्बा, मिसेज शर्मा के यहाँ से आया था , इसमें से डाल दे , अपने यहाँ तो यह मिठाई कोई खायेगा नहीं।" मालकिन ने बहू को समझाते हुए कहा।
"ये ले ख़ुशी, ले पकड़ मिठाई।" किचन में से मालकिन की आई आवाज़ ने मानो मिठाई ख़ुशी के जीभ पर ही रख दी हो। ख़ुशी फुदकती हुई मिठाई लेने पहुंची, मगर यह क्या ... एक, दो, तीं.....पाँच, छह। जैसे आए थे , वैसे ही पैक्ड छह डिब्बों को देख ख़ुशी के पांव तो वहीं चिपक गए।
मालकिन उसके हाथ में मिठाई का थैला अटका रही थी मगर उसकी नज़रें तो कहीं और ही अटकी हुई थीं।
"ख़ुशी, जल्दी आ।" माँ की आवाज़ से खुशी अपनी सोच से बाहर आई।
मिठाई के लिए उसकी आंखों की चमक और जीभ का स्वाद दोनों गायब हो गए थे।
"री, जल्दी पांव बढ़ा , सावन की बदरिया है , खूब जोर की बरसेगी।" माँ आसमां की ओर झांकते हुए कहने लगी।
"माँ, सावन तो बरस रहा है, बस तुझे दिखाई नहीं दे रहा।" मन ही मन बुदबुदाते हुए उसने अपनी माँ को मिठाई का थैला थमाया और बुझे मन से पांव आगे बढ़ाने लगी।
लक्ष्मी मित्तल
द्वारका नई दिल्ली
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
This is exactly what happens even in our homes.
thankyou ♥️
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