एक हादसा, जो किसीने ना देखा, फिर, एक जश्न, जिसमें सबने चाहा सामिल होना.
बहोत भारी सरदर्द के साथ स्टेशन पर खडा बस की राह देख रहा था,
सामान के भारी बैग को संभालने के साथ ही उससे भी भारी, आँखों के पीछे रहे सैलाब को संभालने की नाकाम कोशिश कर रहा था,
अब उसे एक एक पल भारी लग रहा था इस शहर मे,
वो भाग रहा था,इस शहर से या इस शहर मे देखे ख्वाब से,या फिर खुद से.
आसपास कुछ और लड़के सरकारी पद की भर्ती के बारे में बाते कर रहे थे,
उसने बात मे हिस्सा लेना चाहा, आगे बढ़ ही नहीं पाया,
शायद उन सबकी आंखों मे अपने लिए उपहास दिखा.
अपनी इस सोच को यही रोकने के लिए उसने घर पे फोन लगाया,
कुछ बात हुई,
उसने कहना चाहा कि कुछ सराहना का हकदार वो भी है,
कह नहीं पाया,
शायद उस बातों मे अपने लिए बेरुखी देखी.
बढ़ते हुए सरदर्द से और परेशान आसपास दवाई की दुकान के लिए देख रहा था, कि अच्छा दोस्त दिख गया,
उसने चाहा कि दोस्त से बात कर के मन हल्का करे,
पर नहीं कर पाया,
शायद उसने अपनापन की जगह अपनी और औपचारिकता देखी.
खुद की ही सोच से थक कर उसने पानी के साथ दवाई ली और बड़ी उम्मीद के साथ किसीको फोन मिलाया,
उसने कहना चाहा कि मैं टूट चुका हूं और कुछ देर तुम्हारे पास बैठकर खुद को सुलझाना चाहता हूं,
उसने सुनना चाहा,
सब ठीक है, मुझे पता है कि तुम कहीं गलत नहीं हो,
मुझे अब भी तुमपे वहीं भरोसा है,
कोई भी नतीजा कभी भी तुम्हारे व्यक्तित्व को छु भी नहीं सकता,
चलो मिले और सबकुछ एक और रख के हम साथ मे एक बार और खिले,
पर ऐसा नहीं हुआ,
वह जल्दी मे थी,
उसको किसी करीबी को नौकरी लगने की शुभकामना देनी थी,
या फिर शायद उसने उसके बात करने के लहजे मे अपने लिए बेपरवाही देखी.
गिरने ही वाला था कि, इस बार उसने इंसान की जगह खंभे का सहारा लिया और यहां पर वो संभल गया,
आंखों के पीछे रहे सैलाब को रोकने की अब कोई वज़ह नहीं बची थी,
भरी हुई आँखों से आसपास सब धुँधला दिख रहा था,
पर रिश्तों का आईना अब साफ था,
देर लगी पर वो समजा की आज सिर्फ उसके इम्तेहान का ही नतीज़ा नहीं आया,
उस दिन बहोत सारे भ्रम के साथ एक अच्छा और सच्चा इंसान भी टूटा,
इतने बड़े शहर के इतने सारे लोगों के बीच एक बड़ा हादसा एकदम चुपचाप हुआ.
रिश्ते चाहे बेअसर निकले, पर दवाई अब असर कर रही थी,
सरदर्द अब हल्का हो रहा था,
अब उसने ना कुछ कहना चाहा, ना सुनना चाहा,
अब बस उसने महसूस किया...
जो सपने हकीकत से बड़े हो उसे हकीकत बनाना आसान नहीं होता,
सपना अगर अपना है तो, किसी और के सहारे देखना भी तो वाजिब नहीं होता.
और... उसे समज आया..
चाहे कोई उपहास करे, चाहे कोई सराहना ना मिले, उससे कुछ साबित नहीं होता,
हर किसीकी आखों से अपने किरदार को तोलना भी मुनासिब नहीं होता,
कोई और क्यु सुलझाए मुझे, मेरा होना क्यु मेरे लिए काफी नहीं होता,
सब ठीक है, बस एक और बार उठने की ही तो देरी है,
उठने से पहेले तो कोई तूफान भी तूफान नहीं होता.
उसके फोन की घंटी लगातार बज रही थी, आसपास के लोग अजीब तरीके से उसे देख रहे थे,
किसीकी परवाह किए बिना वो एक खंभे को देख कर मुस्करा रहा था,
इतने मे किसीने उसके कंधे पर हाथ रखा, वहीं अच्छा दोस्त था,
बधाईयाँ देना चाहता था, सरकारी पद पर भर्ती होने के लिए,
पर वो दोस्त को समय दे नहीं पाया, नौकरी के पहेले ही दिन देर नहीं करना चाहता था,
या फिर शायद अब उसे किसीसे कुछ कहना - सुनना नहीं था.
बस निकलने ही वाली थी, वो बस पकडने के लिए भागा,
और पैरों मे कुछ अटक गया,
गिरने ही वाला था कि पास के एक खंभे का सहारा लिया और खुद को एकबार फिर सम्भाल लिया.
मुस्कुराया, अपनी सीट ली और सोचा..
तीन साल मे कुछ नहीं बदला, वहीं बनावटी रिश्ते, वहीं भागता हुआ मे और वहीं मुझे बिना मांगे सहारा देता हुआ खंभा.
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