कल ही तो आई थी वह यहाँ उड़ने,
तितली बनकर इस फूल पर बैठने
किसे पता था यह फूल कांटे बनकर चुभेंगे
और मौत की सेज बनकर उसके करीब आएंगे
एक लड़की थी, नादान सरफिरी तितली सी वो,
प्यार और शोषण के बीच रखे आईने को
देख नहीं पाई, जिसमे वो खींची चली गई
अब शायद चाहकर भी बाहर न आ पाई
उन बालो को नोचकर, क्यों जज़्बातो को बिखेर दिया?
रूह को तड़पाकर, क्यों ज़िंदा छोड़ दिया?
उन चीखो को कोई सुन क्यों नहीं पाया?
उस ख़ामोशी को कोई समझ क्यों नहीं पाया?
लूटकर एक बार वो नजाने कितनी बार लूटती है
नजाने कैसे सारे छालो को दूर करती है
इस महाभारत के दरबार मे फिर वही लुटेगी
कल की द्रौपदी आज नया किरदार बनकर आएगी
साँस बाकी है, हौंसले बिखरे है,
ना कोई चाहत तो ना कोई ख्वाब बाकी है
बिन पानी बहती आँखों से,
खौलते हुए जिस्म से,
वो अपने जज़्बातो को टाँकती है
क्योंकि चुप्पी की तो अब आदत बन गई है
घर वही पुराना है,
मगर ये दरारें नई है
दिल वही पुराना है,
बस टूटकर बिखर गया है
सुना है आज-कल नए रंग बन रहे है
जो दरारें भरने की गारंटी देते है
शायद इतनी गारंटी तो बैठे बैठे
बीमा कंपनी वाले भी नहीं देते
तो सोचा कि इस्तेमाल कर लिया जाए
किसे पता कब क्या हो जाए?
शायद इन छोटी छोटी दरारो से
बने इस बड़े घाव को भी जोड़ दे
उन रंगों ने काले कागज़ पर काला रंग लगाकर
छोटी छोटी कुछ दरारें भरकर
दिल को जैसे तैसे जोड़ दिया
पर इन घाव को खुला छोड़ दिया
एक तितली थी, जो आज यहाँ से उड़ गई
एक लड़की थी, जो जीकर भी मर गई!
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