वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ: |
निर्विघ्नंकुरुमेदेवसर्वकार्येषुसर्वदा ||
संस्कृत के इस श्लोक से भला कौन हिन्दू परिचित नहीं होगा? यह श्लोक अनादिकाल से गणेशजी स्तुति में गाया जाता रहा है। यह विवाह एवं अन्य मंगल कार्यों के निमन्त्रण पत्र के शीर्ष पर अवश्य दिखता है। हिन्दू धर्म में किसी भी मांगलिक कार्य के आरम्भ में विध्न विनाशक गणेशजी का पूजन करने की परम्परा है। माना जाता है कि ऐसा करने से शुभ कार्य में कोई बाधा नहीं आती है और निष्कंटक रूप से वह कार्य सम्पन्न होता है। गणेश जी के वन्द्रन व स्मरण को सौभाग्यकारक, समृद्धिदायक एवं सुख प्रदान करने वाला माना जाता है। हर कार्य के शुभारम्भ के लिये भी 'श्री गणेश' शब्द का प्रयोग होता है।
किसी भी घर में जब भी कोई मांगलिक कार्य के समय होने वाली पूजा में अगर गणेश जी की मूर्ति न होने पर गोबर से गणपति को बना कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा कर उनका पूजन किया जाता है| इसके उपरान्त इस समग्री का जल में विसर्जन कर दिया जाता है।
भगवान गणेश एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में पाश, अंकुश, मोदक तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। एक रूप में भगवान श्रीगणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं।
गणेश जी के नाम
शिव-पार्वती पुत्र को अनेक नामों से जाना जाता है। इनमें गणेश नाम ब्रह्माजी द्वारा दिया गया जिन्होंने उनको देवों का अधिपत्य प्रदान किया। उनके दूसरे अवतारी नामों में एकदन्त, वक्रतुण्ड, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण हैं | वहीं सुमुख, कपिल, गजकर्णक, विनायक, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र, द्वैमातुर, गणाधिप, हेरम्ब उनके अन्य दूसरे नाम हैं। उनके अवतारों की अनेक दृष्टान्त धर्म ग्रन्थों में उल्ल्खित है। गणेश जी को देवों में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है और वो बुद्धि के देवता के रूप में माने जाते है। व्यास जी की महाभारत को गणेशजी लिखित मानी जाती है।
गणेश जी के उपासना स्थल
हिन्दू धर्म के सभी मताबलम्बियों में गणेश जी की महिमा एक सामान है । हर शिव मंदिर में गणेश मन्दिर का होना अन्यथा प्रतिमायें का होना आवश्यक हैं । उत्तर भारत में बने पुराने मन्दिरों में छोटी गणेश प्रतिमायें है, परन्तु दक्षिण व मध्य भारत में हर बड़े शिवमन्दिर व विष्णु मन्दिर में गणेश जी बड़ी प्रतिमायें देखने को मिलती हैं। कुछ स्थानों पर उनके एकल मन्दिर भी है। उत्तर मध्यकाल व मध्यकालीन मन्दिरों में उनकी विशाल प्रतिमायें मिलती हैं जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में भी गणेश जी कितने पूजनीय थे। महाबलीपुरम में सातवीं शती में पल्लव राजाओं के समय की संरचनाओं में जो पांच रथं बने हैं उनके एक गणेश रथ भी है।
बस्तर की प्राचीन गणेश प्रतिमायं
भारत में सबसे प्राचीन एवं विशालतम गणपति प्रतिमायें छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर सम्भाग के दन्तेवाड़ा जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र बारसूर में हैं। बारसूर जिला मुख्यालय दन्तेवाड़ा से 32 किमी दूर है। बारसूर में गणेशजी की 8 फीट ऊंची एवं 5 फीट ऊंची दो प्रतिमायें हैं।
इतिहास यह है की, यहां सातवीं शती में नागवंशियों के काल में डेढ़ सौ के आसपास मन्दिर व तालाब आदि थे। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के समय भी यह एक सम्पन्न नगरी रही। 14वीं शती में चालुक्यों की एक शाखा ने कल्चुरी पर आक्रमण कर उस पर अधिपत्य कर लिया। इस हमले से यहां के शासक व प्रजा पूरब में बस्तर की ओर कूच कर गये। चालुक्य नरेश ने दन्तेवाड़ा को अपनी राजधानी के लिये इसलिये चुना क्योंकि यह स्थान उनके राज्य के मध्य में था। बारसूर से राजधानी हटते ही यह नगरी नेपथ्य में चली गई। इससे यहां पर स्थापित मन्दिर व तालाब व दूसरे भवन खण्डहर में बदलते चले गये। बाकी कसर प्रकृति की मार एवं भौगोलिक हलचलों ने पूरी कर दी। उसी बारसूर की तीन किमी. की परिधि में आज भी पुराने मन्दिरों व भवनों के भग्नावशेष देख् जा सकते है। इनमें करीब पांच मन्दिर ठीक हालत में है।
यहां की दोनों गणेश प्रतिमायें बलुआ पत्थर से बनी है। अनुमान यह है की ये मूर्तियां एक विशाल शिव मन्दिर के अहाते में थी जो कालांतर में ध्वस्त हो गया इस ध्वस्त मन्दिर के भग्नावशेषों में ही यह विशाल प्रतिमायें मिली थी। इन दोनो प्रतिमाओं को भारतीय पुरात्त्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित रखने के लिये उनको एक ग्रिल युक्त कक्ष में रखा है। बारसूर क्षेत्र से एक यही प्रतिमा नही मिली है बल्कि यहां से ग्रेनाइट पत्थरों से बनी गणपति एवं अन्य देवी-देवताओं की अनेकों प्रतिमायें मिली है। इनमें से कुछ को तो दन्तेवाड़ा स्थित दन्तेश्वरी मन्दिर परिसर में रखा गया है। वर्तमान बारसूर एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है जिनकी परम्पराओं से लेकर, उपास्य पद्धति व संस्कृति हिन्दू रीति रिवाजों से एकदम अलग है। कुछ साल पहले तक दन्तेवाड़ा जिले में 30 किमी दूर दुर्गम ढोलकल नामक स्थान में एक अन्य शानदार गणेश मूर्ति थी। यह ग्रेनाठट पत्थर से एक निर्जन पहाड़ी पर स्थापित थी जिसे नक्सलियों ने नीचे फेंक दिया।
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