लघुकथा
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रंगीन मौसम
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अहमद की दुकान आज कई दिनों से बन्द थी। वह एक छोटीसी दुकान में झण्डे बेचता था। मुसलमानों के हरे झण्डे, हिन्दुओं के गेरुए झण्डे, सजाने वाले कागज के नारंगी, हरे, लाल, पीले, सफेद झण्डे, हिन्दुस्तान के तिरंगे झण्डे, यहाँ तक कि विदेशी झण्डे भी उसकी दुकान पर मिल जाया करते थे।
कई दिनों से बन्द दुकान में झण्डे तो भरे पड़े थे पर रसोई के डब्बे खाली हो चुके थे।
आज रमजान का पहला दिन था और वह रोजे से था। शाम को रोजा खोलने पर क्या खाया जाएगा। घर पर खजूर का एक टुकड़ा तक नहीं लाया जा सका था।
"अम्मी... रोजे के बाद खाना है क्या?"
"पता नहीं बेटा..। देश में फैली महामारी के कारण दुकान कब खुलेगी...।। उस पर आजकल फैले मजहबी जुनून के कारण वैसे भी हमलोगों का बाहर निकलना कब तक होगा अल्लाह ही जाने..।"
तभी दस्तक सुनकर नजीमा ने दरवाजा खोला तो पड़ोस में रहने वाली कमला हाथ में कुछ खाने का सामान लिए खड़ी थी।
"यह दो रोटी अहमद के लिए लाई हूँ रोजे से है। हमारे रहते बच्चा भूखा रहे कैसे हो सकता है।"
"पर तुम तो...?"
"बहन.. हम एक जगह रहते हैं एक दूसरे के सुख दुःख के साथी...।"
"पर तुम्हारे भी तो काम नहीं है.."
"कोई बात नहीं। मैंने दोपहर को चबेना खा लिया था। "
अहमद ने वजू कर नमाज पढ़ी, दुआ मांगी"अल्लाह मेरे हिन्दुस्तान के झण्डे की बिक्री में बरकत देना।"
उसने दुकान में रखे सामान को सलाम किया और इफ्तार करने बैठ गया।
कनक हरलालका
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