शबनम
“शबनम” यानी की ओस की बूँद यही नाम रखा था अब्बू ने उसका। उस ओस की बूँद को आँख का आँसू बनने में ज़्यादा वक़्त न लगा। मगर हर दर्द सहकर भी उसने अपने अश्क़ अपने में ही जब्त कर लिए।
तीन बरस की हुई थी कि अम्मी अल्लाह को प्यारी हो गईं। सबने कहा उसकी देखभाल के लिए घर में औरत का होना लाज़मी है। खाला ही जब अम्मी बनकर आ जाए तब काहे का सौतेलापन?
लेकिन उसकी दुनिया खुद के बुने हुए तार से नहीं चलती वह तो वैसी ही चलती है जैसी की वह चाहता है।
ख़ाला के दुलार का खोल अम्मी बनते ही तार-तार हो गाय। अब्बू की नज़रों में वैसे फर्क न दिखता था मगर खाला अम्मी के दिए उलाहने सुन वह जब-तब उस पर बिफर पड़ते।
खाला की गोद कई बार हरी हुई पर चिराग की रौशनी के नाम पर बस ‘रहमान’ ही बचे रहे बाकी सबको उसने जैसे दिया वैसे ही अपने पास वापस बुला लिया।
शबनम से पाँच बरस छोटा रहमान उसके हर ग़म और ख़ुशी में शामिल रहता। उसे भी खेलने और खुश रहने के लिए जीता-जागता खिलौना मिल गया था।
वक्त करवटें ले रहा था और शबनम की कुर्ती पर बढ़ रहे कसाव दुपट्टे के आड़ में उसकी नाजुक उम्र की चुगली घर से लेकर मोहल्ले तक में करते फिरते।
इन्हीं दिनों उसकी नजर मोहल्ले के ही उस छोर पर रह रहे विराज शुक्ला के इकलौते बेटे रजत शुक्ला से जा टकराई।
कच्ची उम्र का प्यार कितना भी छुपाओ वो कहीं न कहीं से उघड़ ही जाता है। अम्मी को तो पहले ही लड़की के हाव-भाव बदले से लग रहे थे। उन्होंने रहमान को उसकी जासूसी पर लगाया पर रहमान के लिए उसकी आपा केवल आपा नहीं थीं। वह उसकी ‘अच्छी आपा’ थीं। बहुत कुछ जानते हुए भी उसने अपना मुँह बंद रखा।अब्बू के कान भरे गए और उन्होंने शबनम का निकाह जल्द से जल्द करना है कहकर रिश्तेदारों में खबर फैला दी। खबर शबनम को भी पता चली उसने अपनी ज़िंदगी के लिए एक बड़ा फैसला कर लिया।उसे अपने इश्क़ पर पक्का यक़ीन था। उसने रजत से कह दिया था चूँकि वह दोनों ही बालिग हैं, इसलिए भागकर शादी कर सकते हैं।
निश्चित दिन रहमान को अब्बा के नाम का खत देकर वह घर से निकल गई। रजत के इंतज़ार में एक नहीं कई गाड़ियां निकल गईं। एक पहर बीतने के साथ ही खाला अम्मी और अब्बू स्टेशन आ खड़े हुए।
उस रोज जब वह कोठरी में बंद की गई तब पूरे एक हफ़्ते बाद ही घर की उस अंधेरी कोठरी से बाहर लाई गई। उस कोठरी में जाने कब से घर की औरतें बच्चा जना करती थीं। उसका भी जन्म उसी कोठरी में हुआ था।आज फिर उसका एक जन्म हुआ पर आज वह अपने आँसू सबसे छुपा ले गई।
चिलमन की आड़ में दबी हुई आवाज़ से ‘क़ुबूल’ कहने के साथ ही वह अपने देश से दूर आ गई।
उसकी उम्र से दोगुना उसका शौहर पहले जी भरकर उसकी नजाकत को मसलता फिर दिल खोलकर स्टेशन पर बीती उसकी उस रात के अफसाने के नाम पर उसे बेइज्जत करता।
इश्क़ के नाम पर उठाया वह एक कदम उसकी जिंदगी को दोज़ख़ की जिंदगी में बदल गया था।
सब सहते हुए उसने कई बार शौहर की गिरफ्त से भागने की कोशिश की मगर भागने को लेकर उसकी क़िस्मत हर बार उसे दग़ा ही देती आ रही थी। उसके ऊपर पहरा और ज़ुल्म दोनों ही और सख्त हो जाते।
बकरीद के रोज आख़िर उसे मौका मिला। कुर्बानी के साथ ही हो रहे शोर के बीच ही उसने तेज़ किए गड़ासे से शौहर पर वार कर दिया। एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया। शौहर की गिरफ्त से निकलकर अब वह हुकूमत की गिरफ़्त में आ गई।
बिना अफसोस अपनी ही दलीलों के कटघरे में खड़ी आज वह जमाने से रोके अपने अश्क़ बहा रही थी। उसके सूखे गाल आँसू से तर थे।
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
3:51P.M.
2-3-21
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Very nice.. 💖
बदकिस्मती की शिकार, शबनम की दर्दभरी.. मर्मस्पर्शी दास्तान..!! 👌👍
बेहद मर्मस्पर्शी कहानी👍👍👍
Great work
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