मिट्टी वाला घर
“सबीना चच्ची, से जब झगड़ा मोल लिया तब याद नहीं था कि ईद भी आएगी? अब बैठकर लार टपकाओ।”
कहते हुए धनिया ने रनिया को लताड़ लगाई। रनिया भी कब चुप रहने वाली थी तपाक से बोली-“हाँ, तो हमने कही थी कि उनकी मुर्गी चुराओ? तब तो सालन खाने की तुमको ही पड़ी थी।” “अच्छा! जैसे तुमने तो खाई ही नहीं थी सारी की सारी अकेले हमने ही हड़प करली थी।” “खाई थी, पर हम डंके की चोट पर बताने तो नहीं गए थे कि ऐ,चच्ची तुम्हारी वो पीली गटई वाली मुर्गी नहीं दिख रही।” धनिया ने ये बात सुनी तो बोली-“हम तो इस लिए कह रहे थे जिससे कि चच्ची को हम दोनों पर शक न हो पर तब तुम कूद पड़ी बड़ी सच्चाई का पुतला बनकर।” रनिया ने हँसते हुए उसे जवाब दिया-“देख धनिया, मेरा एक उसूल है चोरी करेंगे पर झूठ नहीं बोलेंगे। उन्होंने पूछा तो हमने कह दिया कि तुमने चुराई हमने पकाई बड़े प्रेम से फिर हम दोनों ने उनकी ही दी बासी रोटी से खाई।अब हमें क्या पता था कि उन्हें सच इतना कड़वा लगेगा कि वो अपना किवाड़ ही हमारे लिए बंद कर लेंगी।”
धनिया बोली-“ सच कड़वा ही होता है री..इइइ! किसी को हज़म नहीं होता।”
“रत्ती भर अपनी नाक को उधर तो घुमा धनिया, सूँघ ज़रा सेवियाँ भूनने की ख़ुशबू कैसी नीम के नीचे तक उड़ रही है।” “अरी रनिया, मुझे तो कबाब और दही फुलकी की भी ख़ुशबू आ रही है। लगता है चच्ची के बेटा-बहू रात चाँद निकलने के बाद ही आ गए, नहीं तो बुढ़िया देहरी पर बैठी पिछले बरस की तरह बाट जोह रही होती और रात तक ज़कात निकालती रहती जिससे हम जैसों की ईद चमक उठती।”
“अब का करें? ये बहिन हमको तो सेवियाँ खानी है। कैसे खायें?”
“सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में हैं या नहीं इनकी बला से इन्हें तो सेवैयां खानी है।”
“हाँ,खानी है तू मेरी बहिन है जा अपना कोई करतब दिखाकर चच्ची से सेवियाँ का जुगाड़ लगा।”
“अच्छा, मैं दरवाज़े तक जाती हूँ। तुम पीछे रहना मैं सलाम बजा कर मुबारक बाद देती हूँ। त्यौहार का दिन है बुढ़िया ज़रूर नरम पड़ेगी।”
“सुन रनिया, तब से कुंडी खटका रहे पर चच्ची तो खोल ही नहीं रही।”
“पीछे हट धनिया, चच्ची के बेटा-बहू आ रहे हैं।”
जब तक धक्का मारके दरवाज़ा तोड़ा गया तब तक सबीना चच्ची अल्लह मियाँ को प्यारी हो चुकी थीं। रसोई से उठती महक उनकी ईद का इंतज़ार साफ़ बयां कर रही थी। उनकी बहू ने पकी हुई रसोई का सारा पकवान घर के बाहर डलवा दिया मिट्टी वाले घर का खाना अब कौन खाता?
धनिया और रनिया की ईद का चाँद घूरे पर महक रहा था और वो ग़म ज़दा होकर मिट्टी जाने के इंतज़ार में नाक सुडक रही थीं।
ज्योत्सना सिंह
गोमती नगर
लखनऊ।
1:54P.M.
30-6-21
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
इस बाकमाल शैली और लेखन का कोई जवाब नही है। मैं इसे बेहतरीन अंत वाली कहानी मानता हूं। बेहद उम्दा लेखन ।
अहा कितनी प्यारी शैली है आपकी, बेहद खूबसूरत कहानी 👌👌
बहुत ही रोचक कहानी है जो पाठकों को अपने साथ बहाकर ले जाता है
ओह, बेहद भावुक कर देने वाली प्यारी सी कहानी❤️
बेमिसाल लेखन..!! ख़ूबसूरत कहानी 👌👍🙏
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