रास्तों में बैठा वह लाचार
देखता है जीवन की तेज़ रफ़्तार
आते जाते सब उसको करते दरकिनार
नहीं किसी की निगाह उस पर टिकती एक भी बार
इंसानियत की रूह अब मर चुकी है
मदद के हाथ अब बढ़ते नहीं हैं
मजबूर है जीने को समाज की फेंकी हुई झूठन पर तार तार होती अपनी ज़िन्दगी को जीने पर
गर्मी हो या बारिश रहता है फुटपाथ पर
अब यही है उसका बिन छत का घर
हे उपरवाले कुछ तो रहम कर
बख्श दे अपनी मुझ पर एक नज़र
ले चल अब मुझे अपनी बाहों में लपेटकर
कहीं दूर जहां न मिलें अब औऱ दुःख के मंज़र
- जूही प्रकाश सिंह
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