उफ़ ये महंगाई !

उफ़ ये महंगाई !

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Juhi Prakash Singh
Juhi Prakash Singh 21 May, 2022 | 1 min read

उफ़ ये महंगाई !

दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही यह महंगाई है,

दस रुपीये की चीज़ अब कम से कम पचास की आती है ।

टमाटर औऱ नींबू  के बढ़ते दामों ने होश सबके उड़ा दिए हैं,

इस परवान चढ़ती गर्मी में नींबू  की शिकंजी मानो भाप बनकर बादलों सी उड़ चुकी है।

बाजार जाने के नाम से जी घबराने लगता है,

जेब के पैसे पूरे पड़ेंगे की नहीं यह डर रूह कंपाने लगता है ।

गाड़ी तो हमने बड़े जोश में आकर किसी तरह से खरीद थी ली,

लेकिन डीजल, पेट्रोल के बढ़ते तेवरों ने गाड़ी की चाभी तक हमसे है छीन ली।

किसी ज़माने में दर दर भटकते लौकी, कद्दू को कोई था न पूछता,

अब अगर यह भी भोजन में मिल जाएँ तो समझो जैसे मिला पनीर का कोफ्ता।

भूले भटके गर कोई मेहमान हमारे घर का रास्ता जाता है भूल,

तो श्रीमती जी की आँखों से बरसने लग जाते हैं अंगारों के शूल ।

उधर बीते दिनों में कोविड ने हमारी व्यथा देख बड़ी ही दया करी थी,

ऑनलाइन शॉपिंग, स्कूल औऱ वर्क फ्रॉम होम ने श्रीमती जी औऱ बच्चों की तफरी रोक हमारी बचत करवा दी थी ।

अब तो कोविड का बहाना भी नहीं है रहा खर्चों से बचने के वास्ते,

बच्चे स्कूल जा रहे हैं औऱ हम दफ्तर औऱ मिलने वालों ने मानो ले लिए हैं हमारे ही घर के रास्ते।

महीने के पहले दिन जो जेबें भारी हो जाती हैं,

घर पहुँचने की देरी नहीं कि बिल व बजट की आंधी उन्हें न जाना कहाँ उड़ा ले जाती है ।

रूस- यूक्रेन की लड़ाई क्या हुई के मानो सब कुछ सोने के दाम हुआ,

औऱ हमारी औकात खिसकी नीचे ऐसे जैसे खाली बाल्टी औऱ एक अँधा कुआँ ।

कोई लौटा दो अब वो वाले अच्छे दिन ,

जब नहीं खाते थे हम हर रोटी को गिन- गिन।

भगवान तुम्हारे आगे है मेरी अब एक यही है पुरज़ोर पुकार,

घटा दो ये महंगाई ताकि में चढ़ा पाऊं तुम पर फिर से नोटों का हार ।


- ©️जूही प्रकाश सिंह
















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Juhi Prakash Singh

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